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________________ कारिका-५] तत्त्वदीपिका ७५ निकलती, इसलिये अनुमान अप्रमाण है। किन्तु अनुमान प्रमाणके अभावमें चार्वाक स्वयं प्रत्यक्षमें प्रमाणता और अनुमानमें अप्रमाणता सिद्ध नहीं कर सकता। 'प्रत्यक्ष प्रमाण है, अविसंवादी ( सत्य ) होनेसे', 'अनुमान अप्रमाण है, विसंवादी (मिथ्या) होनेसे', इस प्रकार प्रत्यक्षमें प्रमाणता और अनुमानमें अप्रमाणता अनुमान प्रमाणके विना सिद्ध नहीं की जा सकती है। अन्य पुरुषमें बुद्धिका ज्ञान अनुमानके विना संभव नहीं है । परलोक आदिका निषेध भी अनुमानके विना नहीं किया जा सकता। अतः प्रमाण और अप्रमाणकी सिद्धि करनेसे, अन्य पुरुषमें बुद्धिका ज्ञान करनेसे तथा परलोक आदिका निषेध करनेसे चार्वाकको अनुमान प्रमाण मानना ही पड़ता है। अनुमानके बिना उसका काम नहीं चल सकता। अतः अनुमान प्रमाणके सद्भावमें अनुमेयत्व हेतु सूक्ष्मादि पदार्थों में प्रत्यक्षत्वकी सिद्धि करेगा ही। _सूक्ष्मादि अर्थोंमें प्रत्यक्षत्वकी सिद्धिके लिए अन्य भी हेतु दिये जा सकते हैं। जैसे—सूक्ष्मादि पदार्थ किसीको प्रत्यक्ष होते हैं, क्योंकि वे प्रमेय हैं, सत् हैं, वस्तु हैं, इत्यादि । अग्नि आदिकी तरह । अतः जब सर्वज्ञकी सिद्धि करने वाले अनेक निर्दोष हेतु विद्यमान हैं, तब कोई भी बुद्धिमान् व्यक्ति सर्वज्ञका निषेध कैसे कर सकता है। __ शंका-अनुमेयत्व हेतुके द्वारा सर्वज्ञकी सिद्धिकी गयी है। यहाँ प्रश्न होता है कि अनुमेयत्व सर्वज्ञका भावरूप धर्म है, अभावरूप धर्म है अथवा उभय धर्म है । यदि अनुमेयत्व भावरूप धर्म है, तो जैसे सर्वज्ञ असिद्ध है वैसे उसका भावधर्मरूप हेतु भी असिद्ध होगा। यदि अभावरूप धर्म है तो वह सर्वज्ञके अभावको ही सिद्ध करेगा। अतः हेतु विरुद्ध है। यदि भाव और अभाव दोनों धर्मरूप है तो ऐसा मानने में अनैकान्तिक दोष आता है, क्योंकि भावाभावरूप हेतु पक्ष, सपक्ष और विपक्ष तीनोंमें रहेगा। भावरूप अंश पक्ष और सपक्षमें रहेगा तथा अभावरूप अंश विपक्षमें रहेगा। इस प्रकार अनुमेयत्व हेतुमें अनेक दोष आनेके कारण यह हेतु ठीक नहीं है। उत्तर-इस प्रकारके असंगत विकल्पों द्वारा दोष देना उचित नहीं है । यदि इस प्रकार दुषण दिया जाय तो प्रत्येक अनुमानमें उक्त दूषण दिया जा सकता है। बौद्धोंका एक अनुमान है—'अनित्यः शब्दः कृतक१. प्रमाणेतरसामान्यस्थितेरन्यधियो गतेः । प्रमाणान्तरसद्भावः प्रतिषेधाच्च कस्यचित् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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