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कारिका-४]
तत्त्वदीपिका अभाव सिद्ध नहीं हो सकता है, तो कृतक हेतुकी विनाशके साथ और धूम हेतुकी वह्निके साथ व्याप्ति भी सिद्ध नहीं हो सकती है। और ऐसा होनेपर मीमांसकको स्वयं अनिष्ट बात स्वीकार करना पड़ेगी अर्थात् व्याप्तिके अभावमें अनुमान प्रमाणका अभाव मानना पड़ेगा । जो कृतक होता है वह नाशवान होता है, और जो नाशवान नहीं होता वह कृतक भी नहीं होता है । जहाँ-जहाँ धूम होता है वहाँ-वहाँ वह्नि होती है, और जहाँ वह्नि नहीं होती है वहाँ धूम भी नहीं होता है, इस प्रकारके ज्ञानको व्याप्तिज्ञान कहते हैं । किन्तु जब दूरवर्ती पदार्थोके अभावका ज्ञान नहीं होगा तो, जो नाशवान नहीं है वह कृतक भी नहीं है, और जहाँ अग्नि नहीं है वहाँ धम भी नहीं है, इस प्रकारके अभावका ज्ञान व्यतिरेकव्याप्तिमें नहीं होगा। और व्याप्तिज्ञान न होनेसे अनुमान प्रमाणका ही उच्छेद हो जायगा। इसलिए अदृश्य होनेपर भी पृथिवीकायमें चेतनताकी सर्वथा निवृत्ति मानना युक्तिसंगत है । अतः यह सिद्ध हुआ कि जिस पदार्थकी हानिमें अतिशय पाया जाता है उसकी कहींपर अत्यन्त हानि हो जाती है। जैसे कि पथिवीकायमें बुद्धिकी अत्यन्त हानि हो जाती है। इसी प्रकार दोष और आवरणकी हानिमें भी अतिशय पाया जाता है। अतः उनकी भी किसी आत्मामें अत्यन्त हानि हो जाती हैं।
जब हम कहते हैं कि दोष और आवरणका किसी आत्मामें अत्यन्त क्षय हो जाता है, तो यहाँ क्षयका अर्थ है निवृत्ति । क्योंकि सत् पदार्थका सर्वथा विनाश नहीं होता है। मणि या कनकपाषाणसे मल का पृथक् हो जाना ही मलका क्षय है । इसी प्रकार आत्मासे कर्मोंका पृथक् हो जाना ही कर्मोंका क्षय है। कर्मोंके क्षयका यह अर्थ नहीं है कि कर्म सर्वथा नष्ट हो गये और कार्मण वर्गणाके रूपमें भी उनकी सत्ता नहीं रही । कर्म पुद्गलद्रव्यका पर्याय है और द्रव्यका कभी सर्वथा नाश नहीं होता है, केवल पर्याय बदलती रहती है। इसलिये जब कर्म आत्मासे पृथक् हो जाते हैं तब कर्मरूप पर्यायको छोड़ देते हैं, यही कर्मोका क्षय है। मणिका अपना शुद्ध स्वरूप पाना ही मलका क्षय है। इसी प्रकार आत्माकी केवलता ही कर्मकी विकलता है। अर्थात् कर्मोका क्षय हो जानेपर आत्मा अपने शुद्ध स्वरूपको प्राप्त कर लेती है और कर्मरूपसे परिणत कार्मण वर्गणाओंकी सत्ता पौद्गलिकरूपमें बनी रहती है। इसीका नाम कर्मोंका क्षय है। __ शंका-जिस प्रकार बुद्धिका नाश पर्यायरूपसे ही होता है, द्रव्यरूपसे नहीं, उसी प्रकार अज्ञान आदि दोषोंका नाश भी पर्यायरूपसे होनेके कारण दोष विशेषका नाश होनेपर भी दोष सामान्यका सद्भाव बना ही रहेगा।
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