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कारिका-३]
तत्त्वदीपिका विधिका स्वभाव प्रवृत्ति करानेका है तो उसे वेदान्तवादियोंकी तरह सबकी प्रवर्तक होना चाहिये। यदि विधिका स्वभाव प्रवृत्ति करानेका नहीं है तो वह वाक्यार्थ ही नहीं हो सकती है। इसी प्रकार विधि यदि फलरहित है तो उससे प्रवृत्ति नहीं हो सकती है । क्योंकि 'प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्तते' अर्थात् प्रयोजनके विना मूर्ख भी किसी कार्यमें प्रवृत्ति नहीं करता है। और विधिको फलसहित माननेमें फलसे ही प्रवृत्ति सिद्ध हुई, न कि विधिसे ।
इसी प्रकार भावना भी वेदवाक्यका अर्थ नहीं हो सकती है । भावना दो प्रकारकी है--शब्दभावना और अर्थभावना । शब्द व्यापारका नाम शब्दभावना है। यहाँ इस प्रकार दूषण दिया जा सकता है कि शब्दका व्यापार शब्दसे अभिन्न है या भिन्न । यदि शब्दव्यापार शब्दसे अभिन्न है, तो उन दोनोंमें प्रतिपाद्य और प्रतिपादकभाव नहीं हो सकता है । शब्द और शब्दव्यापार अभिन्न होनेसे एक हुये, और एक ही वस्तुमें वाच्य-वाचकभाव असंभव है। अर्थात् अभिन्न पक्षमें न तो शब्द वाचक हो सकता है और न शब्दव्यापार वाच्य हो सकता है। यदि शब्दव्यापारको शब्दसे भिन्न माना जाय, तो भी एक व्यापारके प्रतिपादनके लिए दूसरे व्यापारकी आवश्यकता होगी और दूसरेके लिए तीसरेकी। इस प्रकार अनवस्था दोष आनेसे भिन्न पक्ष भी सिद्ध नहीं होता है। शब्दभावनाम दोष आनेसे पुरुषव्यापारस्वरूप अर्थभावनाको वेद वाक्यका अर्थ मानना भी उचित नहीं है। पुरुषके व्यापारका नाम अर्थभावना है। यदि इस प्रकार की अर्थभावना वेदवाक्यका अर्थ है, तो नियोगका भी यही अर्थ है । फिर भाट नियोगका क्यों खण्डन करते हैं। नियोगका अर्थ है कार्यमें लगना । अर्थभावनाका भी यही अर्थ है । तब भाट्ट और प्राभाकरमें कोई मतभेद नहीं होना चाहिए। इस प्रकार परस्परमें विरोध होनेके कारण भावना, नियोग और विधिमेंसे कोई भी वेद वाक्यका निर्दोष अर्थ नहीं हो सकता है। अत: जिसप्रकार परस्पर में विरुद्ध पदार्थका प्रतिपादन करनेके कारण सुगत, कपिल आदि सर्वज्ञ नहीं हैं, उसीप्रकार वेद भी विरुद्ध अर्थका प्रतिपादन करनेके कारण प्रमाणभूत नहीं है । । पहिले न्याय आदि दर्शनोंका संक्षिप्त वर्णन किया गया है । मीमांसादर्शनके सिद्धान्तोंका ज्ञान भी आवश्यक होनेसे उनका भी यहाँ संक्षेपमें वर्णन किया जाता है।
मीमांसा शब्द पूजार्थक मान् धातुसे जिज्ञासा अर्थमें निष्पन्न होता
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