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________________ कारिका-३] तत्त्वदीपिका हआ दीपक न तो पृथ्वीमें जाता है, न अन्तरिक्षमें, न किसी दिशामें और न किसी विदिशामें, किन्तु तेलके नाश हो जानेसे वह केवल शान्तिको प्राप्त कर लेता है । उसी प्रकार निर्वाणको प्राप्त व्यक्ति भी न पृथ्वीमें जाता है, न अन्तरिक्षमें, न किसी दिशामें और न किसी विदिशामें, किन्तु क्लेशके क्षय हो जाने पर वह शान्ति प्राप्त करलेता है निर्वाणकी यही सामान्य कल्पना है। निर्वाण शब्दका अर्थ है बझजाना। जिसप्रकार दीपक तब तक जलता रहता है जब तक उसमें तेल और बत्तीकी सत्ता है। परन्तु उनके नाश होते ही दीपक स्वतः शान्त हो जाता है। उसीप्रकार तृष्णा आदि क्लेशोंका नाश हो जाने पर यह जीवन भी शान्त हो जाता है । यही निर्वाण है। हमने पहले संक्षेपमें सर्वज्ञको मानने वाले मतोंका वर्णन किया है। उक्त मतोंके अनुसार मोक्षमार्ग या धर्मकी प्रवृत्ति सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट मार्गके अनुसार होती है। अतः ये सम्प्रदाय तीर्थंकर या सर्वज्ञको माननेवाले हैं। इन सम्प्रदायोंके जो आगम या शास्त्र हैं वे तीर्थकृत् समय कहलाते हैं। ऊपर जिन मतोंका वर्णन किया गया है उसको पढ़नेसे यह सरलतापूर्वक समझमें आ सकता है कि उक्त मतोंमें तत्त्व आदिको व्यवस्थाके विषयमें किस प्रकार परस्परमें विरोध है। यही कारण है कि न तो सुगत, कपिल आदि सब ही सर्वज्ञ हो सकते हैं, और न उनमेंसे कोई एक ही सर्वज्ञ हो सकता है । क्योंकि किसीके द्वारा भी प्रतिपादित तत्त्वोंकी व्यवस्था युक्तिसंगत नहीं है। तीर्थकृत्' पदका दूसरा अर्थ भी निकलता है। कृत्का अर्थ होता है काटना या छेदन करना । अर्थात् जो सम्प्रदाय तीर्थ या सर्वज्ञको नहीं मानते हैं वे तीर्थकृत् सम्प्रदाय हैं। ऐसे सम्प्रदाय तीन हैं-मीमांसक, चार्वाक और तत्त्वोपप्लवादी । मीमांसकका कहना है कि यदि कपिल, सुगत आदि कोई सर्वज्ञ नहीं सिद्ध होता है तो कोई हानि नहीं है, क्योंकि श्रुतिको प्रमाण तथा धर्मका प्रतिपादक मान लेनेसे सब व्यवस्था बन जाती है । मीमांसा दर्शनका मुख्य उद्देश धर्मका प्रतिपादन करना है । जैमिनिने धर्मका लक्षण किया है"चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः" अर्थात् वेदके द्वारा विधि या निषेधरूप जो अर्थ ( कर्तव्य ) बतलाया गया है वह धर्म है । सर्वज्ञका काम भी वेद ही करता है । वेदके विषयमें कहा गया है कि वेद भूत, भविष्यत्, वर्तमान, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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