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अहिंसा के उत्सर्ग-अपवाद :
५६ निमित्त अर्थात् साधु-संघ या चैत्य का कोई विरोधी हो तो, उसका मिट्टी का पुतला' बनाकर मर्माहत करना धर्म-कार्य है। फलतः वह कल्प प्रतिसेवना के अन्तर्गत हो जाता है। अर्थात् ऐसी हिंसा करने वाला पापभागी नहीं बनता। हिंसा का यह अहिंसक तरीका आज भले ही हास्यास्पद लगे; किन्तु जिस समय लोगों का मन्त्रों में विश्वास था, उस समय उन्होंने यही ठीक समझा होगा कि हम प्रत्यक्षतः अपने शत्रु की हिंसा नहीं करते, केवल उसके पुतले की हत्या करते हैं और तद्वारा शत्रु की हिंसा होती है, अस्तु इस पद्धति के द्वारा हम कम से कम साक्षात हिसा से तो बच ही जाते हैं। वस्तुतः विचार किया जाए, तो तत्कालीन साधकों के समक्ष अहिंसा के बल पर शत्रु पर किस प्रकार विजय प्राप्त की जाए, इसकी कोई स्पष्ट प्रक्रिया नहीं थी-ऐसा लगता है। अतएव शत्रु के हृदय को परिवर्तित करने जितना धैर्य न हो, तो यह भी एक अहिंसक मार्ग है । यह मान लिया गया।
धर्म-शत्रु परोक्ष हो तो मंत्र का आश्रय लिया जाय, किन्तु वह यदि समक्ष ही पा जाय और आचार्य प्रादि के बध के लिये तैयार हो जाय, तो इस परिस्थिति में क्या किया जाए ? यह प्रश्न भी अहिंसक संघ के समक्ष था। उक्त प्रश्न का अपवाद मार्ग में जो समाधान दिया गया है वह आज के समाज की दृष्टि में, जो सत्याग्रह का पाठ भी जानता है, भले ही अहिंसक न माना जाए, किन्तु निशीथ भाष्य और चूर्णिकार ने तो उसमें भी विशुद्ध अहिंसा का पालन ही माना है । निशीथ चूर्णि में कहा है कि यदि ऐसा शत्रु प्राचार्य या गच्छ के बध के लिये उद्यत है, अथवा किसी साध्वी का बलात्कार पूर्वक अपहरण करना चाहता है, अथवा चैत्यों या चैत्यों के द्रव्य का विनाश करने पर तुला हुआ है, और आपके उपदेश को मानता ही नहीं, तब उसकी हत्या करके प्राचार्य आदि की रक्षा करनी चाहिए। ऐसी हत्या करता हुआ संयमी मूलतः विशुद्ध ही माना गया है 'एवं करेंतो विशुद्धो'।
एक बार ऐसा हुआ कि एक प्राचार्य बहुशिष्य परिवार के साथ विहार कर रहे थे। संध्या का समय था और वे एक श्वापदाकुल भयंकर अटवी में पहुँच गए। संघ में एक दृढ शरीर वाला कोंकणदेशीय साधु था। रात में संघ की रक्षा का भार उसे सोंपा गया। शिष्य ने प्राचार्य से पूछा कि हिंस्र पशु का प्रतिकार उसे कष्ट पहुँचाकर किया जाय या बिना कष्ट के ? प्राचार्य ने कहा कि यथा संभव कष्ट पहुँचाए बिना ही प्रतिकार करना चाहिए, किन्तु यदि कोई अन्य उपाय संभव न हो तो कष्ट भी दिया जा सकता है। रात में जब शेष साधु सो गए, तो वह कोंकणी साधु रक्षा के लिए जागता रहा और उसने इस प्रसंग में तीन सिंहों की हत्या करदी। प्रातःकाल उसने प्राचार्य के पास पालोचना की और वह शुद्ध माना गया। इस प्रकार जो भी संघ-रक्षा के निमित्त किसी की हत्या करता है, वह शुद्ध हो माना जाता है। . १. मिट्टी का पुतला बनाकर, उसे अभिमंत्रित कर, पुतले में जहाँ-जहाँ मर्म भाग हों वहाँ खंडित
करने पर, जिसका पुतला होता उसके मर्म का घात किया जाता था। २. नि० गा० १६७, ३. नि० चू० गा०२८६ । ४. 'एवं पायरियादि कारणेसु वावादितो सुद्धो'-नि० चू० गा० २८९, पृ० १०१ भाग १ ।
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