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निशीथ : एक अध्ययन
भगवान् महावीर के द्वारा प्राचरित अहिंसा में और इन टीकाकारों को श्रहिंसासम्बन्धी कल्पना में श्राकाश-पाताल जैसा स्पष्ट अन्तर दीखना है । भ० महावीर तो शत्रु के द्वारा होने वाले सभी प्रकार के कष्टों को सहन कर लेने में ही श्रेय समझते थे । श्रौर अपनी रक्षा के लिये मनुष्य की तो क्या, देव की सहायता लेना भी उचित नहीं समझते थे । किन्तु समय का फेर है कि उन्हीं के अनुयायी उस उत्कट अहिंसा पर चलने में समर्थ नहीं हुए, और गीतानिदिष्ट - 'आततायिनमायान्तम्' की व्यावहारिक अहिसा - नीति का अनुसरण करने लग गए । विवश होकर पारमार्थिक अहिंसा का पालन छोड़ दिया गया । अथवा यह कहना उचित होगा कि तत्कालीन साधक के समक्ष, अपने व्यक्तित्व की अपेक्षा, संघ और प्रवचनअर्थात् जैन शासन का व्यक्तित्व प्रत्यधिक महत्त्वशाली हो गया था । ग्रतएव व्यक्ति, जो कार्य अपने लिये करना ठीक नहीं समझता था, वह सब संघ के हित में करने को तैयार हो जाता था । और तात्कालिक संघ की रक्षा करने में आनन्द मनाता था । ऐसा करने पर समग्ररूप से हिंसा की साधना को बल मिला, यह तो नहीं कहा जा सकता । किन्तु ऐसा करना इसलिये उचित माना गया कि यदि संघ का ही उच्छेद हो जाएगा तो संसार से सन्मार्ग का ही उच्छेद हो जाएगा । श्रतएव सन्मार्ग की रक्षा के निमित्त कभी कभाक असन्मार्ग का भी अवलंबन लेना आवश्यक है ! प्रस्तुत विचारणा इसलिये दोष पूर्ण है कि इसमें 'सन्मार्ग पर दृढ़ रहने से ही सन्मार्ग टिक सकता है' – इस तथ्य के प्रति अविश्वास किया गया है और 'हिंसा से भी हिंसा की रक्षा करना आवश्यक है' - इस विश्वास को सुदृढ बनाया गया है। साधन और साध्य की एक रूपता के प्रति अविश्वास फलित होता है, और उचित या अनुचित किसी भी प्रकार से अपने साध्य को सिद्ध करने की एक मात्र तत्परता ही दीखती है । और यह भी एक अभिमान है कि हमारा हो धर्म सर्व हितकर है, दूसरे धर्म तो लोगों को कु-मार्ग में ले जाने वाले हैं। तभी तो उन्होंने सोचा कि हमें अपने मार्ग की रक्षा किसी भी उपाय से हो, करनी ही चाहिए। एक बार एक राजा ने जैन साधुग्रों से कहा कि ब्राह्मणों के चरणों में पड़ो, अन्यथा मेरे देश से सभी जैन साधु निकल जाएं ! आचार्य ने अपने साधुत्रों को एकत्र करके कहा कि जिस किसी साधु में अपने शासन का प्रभाव बढ़ाने की शक्ति हो, वह सावद्य या निरवद्य जैसे भी हो, प्रगत कष्ट का निवारण करे। इस पर राजसभा में जाकर एक साघु ने कहा कि जितने भी ब्राह्मण हैं उन सबको आप सभा में एकत्र करें, हम उन्हें नमस्कार करेंगे । जब ब्राह्मण एकत्र हुए, तो उसने कणेर की लता को अभिमंत्रित करके सभी ब्राह्मणों का शिरच्छेद कर दिया; किसी प्राचार्य के मत से तो राजा का भी मस्तक काट दिया। इस प्रकार प्रवचन की रक्षा और उन्नति की गई। इस कार्य को भी प्रवचन के हितार्थ होने के कारण विशुद्ध माना
गया है ।
मनुष्य-हत्या जैसे अपराध को भी, जब प्रवचन के कारण विशुद्ध कोटी में माना गया, तब अन्य हिंसा की तो बात ही क्या ? अतएव अहिंसा के अन्य अपवादों की चर्चा न करके प्रस्तुत में प्राहार-सम्बन्धी कुछ अपवादों की चर्चा की जाएंगी। इससे पहले यहाँ इस बात की प्रोर पुनः ध्यान दिला देना आवश्यक है कि यह सब गच्छ-वासियों की ही चर्या है । किन्तु
१. ' एवं पत्रयत्थे पढिसेवंतो विसुद्धो' - नि० चू० गा० ४८७ ।
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