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________________ निशीथ : एक अध्ययन रूप हो गए हैं । अर्थात् यह कहा जा सकता है कि भाष्यकार ने नियुक्ति गाथानों को भाष्य का हो अंग बना लिया है और नियुक्ति तथा भाष्य दोनों परस्पर मिलकर एक ग्रन्थ बन गया है। नियुक्ति ने अपनी पृथक् सत्ता खो दी है । निशीथ, प्राचारांग का ही एक अध्ययन है। अतएव प्राचारांग की नियुक्ति के कर्ता ही निशीथ की नियुक्ति के भी कर्ता हैं। प्राचारांगादि दश नियुक्तियों के कर्ता द्वितीय भद्रबाहु हैं । अतएव निशीथ नियुक्ति के कर्ता भी भद्रबाहु को ही मानना चाहिए। उनका समय मुनिराज श्री पुण्य विजय जो ने ग्रान्तर तथा बाह्य प्रमाणों के आधार पर विक्रम को छठी शती स्थिर किया है, और उन्हें चतु'दश पूर्वविद् भद्रबाहु से पृथक् भी सिद्ध किया है । उनकी यह विचारणा प्रमाणपूत है, अतएव विद्वानों को ग्राह्य हुई है। जब हम यह कहते हैं कि नियुक्तियों के कर्ता द्वितीय भद्रवाह हैं, तब एकान्त रूप से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि नियुक्ति के नाम से जितनी भी गाथाएं उपलब्ध होती हैंनिशीथ में या अन्यत्र-वे सभी प्राचार्य भद्राबाहु द्वितीय की ही कृति हैं। क्योंकि प्राचार्य भनाबाहु द्वितीय ही एकमात्र नियुक्तिकार हुए हैं, यह बात नहीं है। उनसे भी पहले प्रथम भद्रबाहु और गोविंदवाचक हो चुके हैं, जो नियुक्तिकार के नाम से प्रसिद्ध हैं। और वस्तुतः प्राचीनकाल से ही यह परम्परा रही है कि जो भी मूल सूत्र का अनुयोग-अर्थ कथन करता था, वह, संक्षिप्तशैली से नियुक्ति पद्धति का आश्रय लेकर ही करता था। यही कारण है कि प्राचीनतम संक्षिप्त व्याख्या का नाम नियुक्ति दिया गया है । व्याख्याता अपने शिष्यों के समक्ष गाथाबद्ध करके संक्षिप्त व्याख्या करता था और शिष्य उसे याद कर लेते थे। ये ही नियुक्ति गाथाएं शिष्यपरंपरा से उत्तरोत्तर चली आती रहीं। प्रथम भद्रबाहु, गोविंद वाचक,२ अथवा द्वितीय भद्रबाहु ने उन्हीं परंपरा प्राप्त नियुक्तियों को संकलित तथा व्यवस्थित किया। साथ ही आगमों की व्याख्या करते समय जहाँ अावश्यकता प्रतीत हुई, अपनी ओर से कितनी ही स्वनिर्मित नई गाथाए' भी, जोड़ दी गई है। इसी दृष्टि से ये तत्तत् नियुक्ति ग्रन्थों के रचयिता कहे जाते हैं। प्राचीनकाल के लेखकों का अाग्रह मौलिक रचयिता बनने में उतना नहीं था, जितना कि नई सजावट में था । फलतः वे जहाँ से जो भी उपयुक्त मिलता, उसे अपने ग्रन्थ का अंग बना लेने में संकोच नहीं करते थे। मौलिक की अपेक्षा परंपरा प्राप्त की अधिक महत्ता थी। अतएव अपने पूर्वगामी लेखकों का ऋणस्वीकारोक्ति के रूप में नामोल्लेख किये बिना अथवा उद्धरण आदि की सूचना दिए बिना भी, अपने ग्रन्थ में पूर्व का अधिकांश ले लेते थे-इसमें संकोच की कोई बात न थी। ग्रन्थ-रचनाकार के रूप में अपने को यशस्वी बनाने की उतनी आकांक्षा न थी, जितनी कि इस बात की तमन्ना थी कि व्याख्येय अंश, किसी भी तरह हो, अध्येता के लिये स्पष्ट हो जाना चाहिए । अतएव आधुनिक अर्थ में उनका यह कार्य साहित्यिक चोरी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उन्हें मौलिकता का प्राग्रह भी तो नहीं था। १. वृहत्कल्पभाष्य, भाग छठा,प्रस्तावना पृ० १-१७ २. वृहत्कल्प प्रस्तावना, भाग ६, पृ० १५-२०; तथा निशीथ, गा० ३६५६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001828
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages312
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, F000, F010, & agam_nishith
File Size17 MB
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