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निशीथ के कत्त: द्वादशांग ही थे। और वही प्रारंभिक काल में प्रमाण-पदवी को प्राप्त हुए थे। अावश्यक का श्रुत से क्या संबन्ध है-यह दिखाना अनुयोग के प्रारंभिक प्रकरण का उद्देश्य रहा है। किन्तु कौन प्रागम लोकोत्तर पागम प्रमाण है-यह दिखाना, आगे पाने वाली प्रागमप्रमाण चर्चा का उद्देश्य है । उसी प्रागमप्रमाण की चर्चा में आगम की व्याख्या अनेक प्रकार से की गई है । और प्रतीत होता है कि उन व्याख्यानों का आश्रय लेकर ही अंगेतर-अंगबाह्य ग्रन्थों को भी प्रागमग्रन्थों के व्याख्यातानों ने गणधरप्रणीत कहना शुरू कर दिया।
अनुयोग द्वार के प्रागमप्रमाण वाले प्रकरण' में प्रागम के दो भेद किये गये हैं-- लौकिक और लोकोत्तर । सर्वज्ञ-तीर्थकर द्वारा प्रणीत द्वादशांग रूप गणिपिटक-प्राचार से लेकर दृष्टिवाद पर्यन्त-लोकोत्तर पागम प्रमाण है। इस प्रकार पागम की यह एक व्याख्या हुई। यह व्याख्या मौलिक है और प्राचीनतम आगमप्रमाण की मर्यादा को भी सूचित करती है। किन्तु इस व्याख्या में प्रागम ग्रन्थों की नामतः एक सूची भी दी गई है, अतएव उससे बाह्य के लिए प्रागम प्रमाण-संज्ञा वर्जित हो जाती है।
प्रागम प्रमाण की एक अन्य भी व्याख्या या गणना दी गई है, जो इस प्रकार है : प्रागम तीन प्रकार का है- सूत्रागम, अर्थागम और तदुभयागम । पागम की एक अन्य व्याख्या भी है कि पागम तीन प्रकार का है-प्रात्मागम, अनंतरागम और परंपरागम । व्याख्यानों को दृष्टान्त द्वारा इस प्रकार समझाया गया है : तीर्थकर के लिये अर्थ आत्मागम है, गणधर के लिये अर्थ अनंतरागम और सूत्र आत्मागम है, तथा गणधर-शिष्यों के लिये सूत्र अनंतरागम और प्रर्थ परंपरागम है। गणधर-शिष्यों के शिष्यों के लिये और उनके बाद होने वाली शिष्य-परंपरा के लिये अर्थ और सूत्र दोनों ही प्रकार के आगम परंपरागम ही हैं। इन दोनों व्याख्यानों में सूत्र पद से कौन से सूत्र गृहीत करने चाहिए, यह नहीं बताया गया। परिणामतः तत्तत् अंगबाह्य आगमों के टीकाकारों को अंगबाह्य आगमों को भी गणधरकृत कहने का अवसर मिल गया। निशीथ-चूर्णिकार ने अनुयोगद्वार की प्रक्रिया के आधार पर ही प्रयाण का विवेचन करते हुए यह कह दिया कि निशीथ अध्ययन तीर्थंकर के लिये अर्थ की दृष्टि से प्रात्मागम है.। गणधर के लिए इस अध्ययन का अर्थ अनंत रागम है किन्तु इसके सूत्र प्रात्मागम हैं-अर्थात् निशीथ सूत्र की रचना गणधर ने की है । और गणधर-शिष्यों के लिये अर्थ परंपरागम है और सूत्र अनंतरागम है। शेष के लिये अर्थ और सूत्र दोनों ही परंपरागम हैं । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अनुयोगद्वार की इस वैकल्पिक व्याख्या ने व्याख्यातामों को अवसर दिया कि वे अंगबाह्य को भी गणधरकृत कह दें, इसलिए कि वह भी तो सूत्र है।
प्राचार्यों ने कुछ भी कहा हो, किन्तु कोई भी ऐतिहासिक इस बात को नहीं स्वीकार कर सकता कि ये सब अंग-बाह्य ग्रन्थ गणधरप्रणीत हैं. फलतः प्रस्तुत निशीथ भी गणधर कृत है। जबकि वह मूलतः अंग नहीं, अंग का परिशिष्ट मात्र है । अस्तु नियुक्ति के कथनानुसार यह ही तर्क संगत है कि निशीथ स्थविरकृत ही हो सकता है, गणधरकृत नहीं।
१. अनुयोगद्वार सू० १४७, २. पूरे भेद गिना देने से भी व्याख्या हो जाती है, ऐसी प्रागमिक परिपाटी देखी जाती है. ।
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