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निशीथ के कर्ता : इससे स्पष्ट है कि चूर्णिकार के मत से निशीथ गणधरकृत है।
प्राचारांग-चूणि प्रौर निशीथ-चूणि के कर्ता भी एक ही प्रतीत होते हैं, क्योंकि निशीथ. चूर्णि के प्रारंभ में 'प्रस्तुत चूणि कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ है'-ऐसान कह करके यह कहा गया है कि : 'भणिया विमुत्तिचूला अहुणावसरो णिसीहचूलाए।'
___-नि० पृ० १ अर्थात् “प्राचारांग की चौथी चूला विमुक्ति-चूला की व्याख्या हो गई। अब हम निशीथ को व्याख्या करते हैं ।" इससे स्पष्ट है कि निशीथचूणि के नाम से सुपसिद्ध ग्रन्य भी प्राचारांगचूर्णि का ही अंतिम अंश है । केवल, जिस प्रकार आचारांग का अध्ययन होने पर भी प्राचारांग से निशीथ को पृथक कर दिया गया है उसी प्रकार निशीथ चूणि को भी प्राचारांग की शेप चूणि से पृथक् कर दिया गया है। यही कारण है कि निशीथ-चूणि के प्रारंभ मैं अलग मे नमस्काररूप मंगल किया गया है।
निशीथ चूणि में निशीथ के कर्ता के विषय में निम्न उल्लेख है :
"निसीहचूलज्मयण स्स तित्थगराणं प्ररथस्स अत्तागमे, गहराणं सुत्तस्स अत्तागमे, गणावं प्रत्यस्स अण तरागमे। गणहरसिस्साण सुत्तस्स मणतरागमे, अस्थस्स परंपरागमे । नेण परं माय सुत्तस्स वि भस्थस्स वि यो अत्तागमे, णो अणन्तरागमे, परंपरागमे ।"
-नि० पृ०४ __ इससे भी स्पष्ट है कि निशीथ सूत्र के कर्ता अर्थ-दृष्टि से तीर्थकर हैं, और गन्द अयांन सूत्र-दृष्टि से गणधर हैं'। अर्थात् स्पष्ट है कि चूर्णिकार के मत से निगीथ मूत्र के कर्ता गणवर हैं। चूणिकार के मत का मूलाधार निशीथ की अंगान्तर्गत होने की मान्यता है । सार यह है कि स्थविर शब्द के अर्थ में मतभेद है । शीलांक सूरि, स्थविर गब्द के विशेषण रूप में चतुर्दग पूवं. धारी ऐसा अर्थ तो करते हैं, किन्तु उन्हें गणधर नहीं कहते । जर्वाक चूर्णिकार स्थविर पद का अर्थ गणधर, लेते हैं। चूर्णिकार ने स्थविर पंद का अर्थ, गणधर, इमलिये किया कि निगीय आचारांग का अंश है, और अंगों की. सूत्र-रचना गणधरकृत होती है। अतएव निशीय भी गणधरकृत ही होना चाहिए।
नियुक्तिकार जब स्वयं निशीथ को स्थविरकृत कहते है, तो चूर्णिकार ने इसे गणधरकृत क्यों कहा? इस प्रश्न पर भी संक्षेप में विचार करना आवश्यक है। यह तो ऊपर कहा ही जा चुका है कि निशीथ सूत्र का समावेश अंग में किया गया है । अतएव एक कारण तो यह है ही कि अंगों की रचना गणधरकृत होने से उसे भी गणधरकृत माना जाए । किन्तु यह परिस्थिति तो नियुक्तिकार के समक्ष भी थी। फिर क्या कारण है कि उन्होंने निशीथ को गणधरकृत न कहकर, स्थविरकृत कहा? जबकि वे स्वयं आवश्यक सूत्र की नियुक्ति में (गा० ६२) गणधरों का सूत्रकार के रूप में उल्लेख करते हैं । प्राचारांग-नियुक्ति के पूर्व ही वे अावश्यक-नियुक्ति की रचना कर चुके थे, और आवश्यक के सामायिकादि अध्ययनों के कर्ता गणधर हैं, ऐसा भी कह चुके थे। तब प्राचारांग के द्वितीयस्कंध को उन्होंने ही स्वयं स्थविरकृत क्यों कहा? यह प्रश्न
१. पावश्यक नियुक्ति गा० ८९-९०, और गा० १६२ । मूलाचार ५८० २. 'गणघरवाद' की प्रस्तावना पृ०१०
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