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निशीथ : एक अध्ययन देकर जिस प्रकार 'पप्प' नाम हा, उसी प्रकार 'पकप्प' शब्द का छेद देकर केवल 'पायार' भी इसका नाम हो गया है- ऐसा गुणनिष्पन्न नामों की सूचि के देखने से पता चलता है ।
"मायाम्पकप्पस्स उ इमाई गोणाई णामधिज्जाइ पायारमाझ्याई".--नि० गा० २। .
निशीथ के जो अन्य गुणनिष्पन्न नाम हैं, वे ये हैं-अग्ग- अग्र, चूलिया-चूलिका' । यह सब, नाम के एक देश को नाम मानने की प्रवृत्ति का फल है । साथ ही, इस पर से यह भी ध्वनित होता है कि प्राचारांग का यह अध्ययन सबसे ऊपर है, या अंतिम है ।
अन्यत्र भी निशीथ सूत्र के निशीधर, “पकप्प' प्रकल्प और 'प्रायारपकप्प' प्राचार प्रकल्प ये नाम मिलते हैं।
दिगम्बर परम्परा में, जैसा कि हम पूर्व बता पाए हैं, इसके नाम 'निसिहिय', 'निसीहिय' 'निषिधक', और 'निषिद्धिका' प्रसिद्ध हैं। निशीथ का आचारांग में संयोजन और पृथक्करण :
आचारांग-नियुक्ति की निम्न गाथा से स्पष्ट है कि प्रारंभ में मूल प्राचारांग केवल प्रथम स्कंध के नव ब्रह्मचर्य अध्ययन तक ही सीमित था! पश्चात् यथासमय उसमें वृद्धि होती गई । और वह प्रथम 'बहु' हुप्रा और तदनन्तर-'बहुतर' अर्थात् आचारांग के परिमाण में क्रमशः वृद्धि होती गई, यह निम्न गाथा पर से स्पष्टतः प्रतिलक्षित होता है :
णवबंमचेरमो अट्ठारसपयसहस्पिनो मो। हवह य सपंचचूलो बहु-बहुतरो पयम्गेण ।
-प्राचा० नि० ११ नियुक्ति में प्रयुक्त 'बहु' और 'बहुतर' शब्दों का रहस्य जानना आवश्यक है। आचारांग के ही आधार पर प्रथम को चार चूलाएँ बनी और जब वे प्राचारांग में जोड़ी गई, तब वह 'बह' हा । प्रारंभ की चार चूलाएं' 'निशीथ' के पहले बनी, अतएव वे प्रथम जोड़ी गई । इसका प्रमाण यह है कि समवाय" और नंदी-दोनों में प्राचारांग का जो परिचय उपलब्ध है, उसमें मात्र २५ ही अध्ययन कहे गये हैं। तथा अन्यत्र समवाय, में जहां प्राचार, सूयगड, स्थानांग के अध्ययनों की संख्या का जोड़ ५७ बताया गया है, वहाँ भी निशीथ का वर्जन करके प्राचारांग के मात्र २५ अध्ययन गिनने पर ही वह जोड़ ५७ बनता है । अतएव स्पष्ट है कि प्राचीन
१. नि० गा० ३ २. व्यव० विभाग २, गा० १६८; ३, व्यव० विभाग २ गा० १३७, २२१, २५०, २५४; व्यव० उद्देश ३, गा० ११६ ४. व्यवहार सूत्र उद्देश ३, सू० ३, पृ० २७ ५. समवाय सूत्र १३६ ६. नंदी सू० ४५ ७. समवाय सू० ५७
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