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हमारी दुर्बलताएँ, जो लक्ष्य में हैं:
प्रस्तुत भीमकाय महाग्रन्थ का संपादन वस्तुतः एक भीम कार्य है।। हमारी साधन मीमाग मी नहीं थी कि हम इस जटिल कार्य का गुरुतर भार पाने ऊपर लेते । न तो हमारे पास उक्त ग्रन्थ को यथेट विविध लिखित प्रतियां है । और जो प्राप्त है वे भी शुद्ध नहीं है। अन्य नत्मम्बन्धित ग्रन्थों का भी प्रभाव हैं । प्राचीनतम दुरूह अन्यों की सम्पादन कला के अभिज्ञ कोई विशिष्ट विद्वान् भी निकटस्थ नहीं है । यदि इन मब में से कुछ भी अपने पास होता, तो हमारी स्थिति दूसरी ही होती ?
किन्तु किया क्या जाय ? मनुष्य के पाग जो वर्तमान में साधन है, वही तो काम में पाते है। ऐसे ही प्रसंग पर ऋजु-सूत्र नयका वह अभिमत ध्यान में प्राता है, जो स्वकीय वस्तु को ही वस्तु मानता है और वह भी वर्तमानकालीन को ही । उमकी दृष्टि में अन्य सब अवस्तु है । प्रस्तु हमें भी जो भी अस्तव्यस्त एवं अपूर्ण साधन-सामग्री प्रात है, उसी को यथार्थ मानकर चलना पड़ रहा है।
हमारा अपना विचार इस क्षेत्र में अवतरित होने का नहीं था। हम इसकी गुरुता को भलीभाति समझे हुए थे। बड़े-बड़े विद्वानों के श्रीमुख से ज्ञात था कि निशीय भाष्य तथा चूणि की लिखित प्रतियो बहुत अशुद्ध है। वह अशुद्धियों का इतना बड़ा जंगल है कि खोजने पर भी मही मार्ग नहीं मिल पाता। एक दो उपक्रम इस दिशा में हुए भी हैं, किन्तु वे इसी अशुद्धि बहुलता के कारण सफल नहीं हो पाए । किनु हमारे कितने ही सहयोगी एक प्रकार से हठ में ये कि कुछ भी हो, निशोथ भाष्य तथा चूणिका मंगादन होना ही चाहिए । उनको उक्त ग्रन्थ राज के प्रति इतनी अधिक उत्कट अभीप्सा थी कि कुछ पूछिए ही नहीं । फलतः हम अपनी दुर्बलताओं को जानते हुए भी “व्यापारेषु, व्यापार" में व्यापृत हो गए।
हमारी जितनी सीमा है, उतनी हम सावधानी रखते हैं । 'यावद् बुद्धिवखोदयम्' हम सावधानी से कार्य कर रहे हैं । फिर भी साधनाभाव के कारण, हम जैसा चाहते हैं कर नहीं पाते हैं। अतएव प्रस्तुत ग्रन्थराज के इस कार्य को संपादन न कह कर यदि प्रकाशन मात्र कहा जाए तो सत्य के अधिक निकट होगा । और यह प्रकाशन भी पृष्ठ भूमि मात्र है, भविष्य के सुव्यवस्थित प्रकाशनों के लिए । अधिक-से-अधिक प्राचीन ताडपत्र की प्रतियों के आधार पर जब कभी भी भविष्य में समर्थ विद्वानों द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थराज का संपादन होगा, तब हमारा यह लघुतम प्रयास उन्हें अवश्य ही थोड़ी-बहुत सुविधा प्रदान करेगा, यह हमारा विश्वास है । और जब तक वह विशिष्ट सम्पादन नहीं होता है, तब तक ज्ञान - पिपासुमों की कुछ-न-कुछ जिज्ञासा-पूर्ति होगी ही और चिरकाल से अवरुद्ध सत्य का प्रकाश भी कुछ-न-कुछ प्रस्फुरित होगा ही, इसी प्राशा के साय. हम अपने कार्य पथ पर अग्रसर है। हमारे सहयोगी, जिनका स्मरण आवश्यक है।
प्रस्तुत सम्पादन के लिए प्राचीन लिखित प्रतियां आवश्यक थीं, जो इधर मिल नहीं रही थीं। अतः इसके लिए भाण्डारकर इस्टीव्य ट से प्रतियां मंगाने का प्रश्न सामने प्राया। इतनी दूर से बिना किसी परिचय के प्रतियों का आना एक प्रकार से असंभव ही था। परन्तु तत्र विराजित हमारे चिर स्नेही पं. मुनिश्री श्रीमल्लजी म. के सहयोग को हम भूल नहीं सकते, जिसके फलस्वरूप हमें इतनी दूर रहते हुए भी शीघ्र ही प्रतियां उपलब्ध हो गई। श्रीयुत कनकमलजी मूरणोत पूना का इस दिशा में किया गया सफल प्रयास भी चिरस्मरणीय रहेगा। सेवा मूर्ति श्री अखिलेश मुनि जी का मतत महयोग भी भूलने
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