________________
व्यवहारोपयोगी स्थूल अंश कभी-कभी अमुक देश और काल को क्षुद्र सीमाओं में अटक कर रह जाता है अतः उसे हठात् सर्वदेश और सर्वकाल में लागू करना, न युक्ति-संगत है और न सिद्धान्त-संगत ही ।
सम्पादन में प्रयुक्त लिखित प्रतियों का परिचयः
(
1
सौभाग्य या दुर्भाग्य की बात नहीं कहता, किन्तु इतना कहना आवश्यक है कि यदि यह सम्पादनकार्य गुजरात या महाराष्ट्र प्रदेश के अहमदाबाद तथा पूना आदि नगरों में होता, तो बहुत अच्छा होता । क्योंकि वहाँ ज्ञान भण्डारों में प्राचीन प्रतियों का संग्रह विपुल मात्रा में मिल जाता है । इधर उत्तर-प्रदेश आदि में इस प्रकार के प्राचीन संग्रह नहीं है । अतएव प्रस्तुत सम्पादन के लिए प्राचीन प्रतियाँ, प्राच्य संशोधन मन्दिर अर्थात् भाण्डार कर इन्स्टीट्यूट पूना से प्राप्त की गई हैं । हमारी इच्छा के अनुसार ताड-पत्र की प्रति तो नहीं, किन्तु कागज पर लिखी हुई कुछ प्राचीन प्रतियां मिल गई, जिनके आधार पर हमारा कार्य पथ यथाकथंचित् प्रशस्त हो सका ।
६ )
1
( १ ) निशीथ-सूत्र मूल – एक प्रति निशोधसूत्र की मूल मात्र है । पत्र संख्या ३७ है । प्रति पुरानी मालूम होती है, किन्तु लेखनकाल का उल्लेख नही है । प्रति सुवाच्य है, यत्रतत्र हाशिये पर संस्कृत तथा गुजराती भाषा में टिप्पण लिखे हुए हैं ।
ん
( २ ) निशीथ - भाष्य- यह प्रति एक हो है और देखने में काफी सुन्दर लगती है । किन्तु ग्रक्षरविन्यास अस्पष्ट है । व और च, म और स आदि की भ्रांतियाँ तो प्रायः पद-पद पर तंग करती हैं । लेखनकाल विक्रमाब्द १६५५ है और लेखक हैं श्री धर्मसिन्धुर गणी । पत्र संख्या १०४ है ।
( ३ ) निशीथ - चूर्णि - निशीथ चूर्णि की दो प्रतियाँ हैं । एक तो अत्यन्त जीर्ण हैं, यत्रयत्र कीट
| प्रति काफी
कवलित भी है । यह १६५० संवत् की लिखी हुई है । पत्र संख्या ७४४ है । दूसरी प्रति कुछ ठीक हालत में है। प्रशुद्धि-बहुल तो है, किन्तु सुवाच्य होने से इस प्रति का ही अधिकतर उपयोग किया गया पुरानी प्रतीत होती है, किन्तु लेखनकाल का उल्लेख नहीं हैं । लेखक का भी कहीं निर्देश नहीं ६७० है | यह है लिखित प्रतियों का संक्षिप्त परिचय पत्र । इस पर से सहृदय पाठक देख कितना सीमाबद्ध होकर काम करना पड़ा है ।
है
Jain Education International
-
( ४ ) टाइप अंकित प्रति - निशीथ भाष्य तथा करना आवश्यक । यह प्रति टाइप की हुई है और प्राचार्य विजयजी गयी द्वारा संपादित है । यह प्रति बड़े ही श्रम एवं निर्भ्रान्त तो नहीं है, फिर भी इससे हमारी कठिनाइयों को हल
कृतज्ञता के नाते उन मुनि-युगल का सादर अभिनन्दन करना अपना कर्तव्य समझते हैं ।
'
उक्त प्रतियों के सम्बन्ध में एक बात और है । वह यह कि प्रायः सभी प्रतियों में तकार और धकार
की श्रुति अधिक है । कहीं-कहीं तो ये श्रुतियाँ पाठक को सहसा भ्रान्त भी कर देती हैं । उदाहरण-स्वरूप-जहा
और तहा के स्थान में जधा और तधा का प्रयोग है । अहवा के स्थान में अधवा का प्रयोग प्रचुर हुआ है । गाहा के लिए गाधा का प्रयोग बड़ा ही विचित्र-सा लगता है । सावय के स्थान में सावत, कदाचित् के स्थान में कताति के प्रयोग तकार श्रुति के हैं, जो कभी-कभी बड़े ही अटपटे मालूम पड़ते हैं । अतः पाठक इस ओर सावधान होकर चलेंगे तो अच्छा रहेगा ।
। पत्र संख्या सकते हैं, हमें
चूर्णि की एक और प्रति है, जिसका उल्लेख श्री विजयप्रेम सूरीश्वरजी तथा पं० श्री जम्बू लगन से निर्मित की गई हैं । यह प्रति भी करने में काफी सहयोग मिला है, अतः हम
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org