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प्राभार:
आभार:
प्रस्तुत निबन्ध की समाप्ति पर, मैं, संपादक मुनिद्वय तथा प्रकाशकों का प्राभार मानना भी अपना कर्तव्य समझता हूँ ; जिन्होंने प्रस्तुत परिचय के लेखन ' का अवसर देकर, मुझे निशीथ के स्वाध्याय का सु-अवसर प्रदान किया है। साथ ही, उन्हें लबे काल तक प्रस्तुत परिचय की प्रतीक्षा करनी पड़ी, एतदर्थ क्षमा प्रार्थी भी है।
वाराणसी-५॥ ता० १३-३-५६
दलसुख मालवणिया
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