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सांस्कृतिक सामग्री : राजा के अनुरोध से कालकाचार्य ने चतुर्थी को पर्युषण किया। तथा महाराष्ट्र में उसी दिन को 'समणपूया' का उत्सव शुरू हुपा-यह ऐतिहासिक तथ्य बड़े महत्व का. है (गा० ३१५३ चू०)। गिरिफुल्लिगा नगरी में इट्टगाहण = इZगा उत्सव होता था । इट्टगा एक खाद्य पदार्थ है। उत्सव वाले दिन वह विशेष रूप से बनता था। एक श्रमण ने किस प्रकार तरकीब से इट्टगा प्राप्त की, इस सम्बन्ध में एक मनोवैज्ञानिक-साथ ही रोचक कथा निशीथ में दी हुई है (गा० ४४४६-५४) ।
वाद्य, नृत्य तथा नाट्य के विविध प्रकारों का भी निर्देश है (५१००-१) ।
भगवान् महावीर के समय में जैन धर्म में जातिवाद को प्रश्रय नहीं मिला था । हरिकेश जैसे चांडाल भी साधु होकर बहुमान प्राप्त करते थे। किन्तु निशीथ मूल तथा टीकोपटीकानों के पढ़ने से प्रतीत होता है कि जैन श्रमणों ने जातिवाद को पुनः अपना लिया है। निशीथ सूत्र में उवणाकुल अथवा अभोज्यकुल में भिक्षा लेने के लिये जाने का निषेध है ( नि० सू० ४. २२)। इसी प्रकार दुगुछित कुल से संपर्क का भी निषेध है (नि० सू० १६. २७-३२) । कर्म, शिल्प और जाति से ठवणाकुल तीन प्रकार के हैं (१) कर्म के कारण-एहाणिया (नापित), सोहका = शोधका (धोबी ?), मोरपोसक (मयूरपोषक); (२) शिल्प के कारण-हेटण्हाविता, तेरिमा, पयकर, पिल्लेवा; (३) जाति के कारण–पोण (चांडाल), डोम्ब (डोम), मोरत्तिय । ये सभी जु गित-दुगुछित-जुगुप्सित कहे गये हैं ( नि० गा० १६१८ ) ।
लोकानुसरण के कारण ही लोक में हीन समझे जाने वाले कुलों में भिक्षा त्याज्य समझी गई है। अन्यथा लोक में जैन शासन की निन्दा होती है और जैन श्रमण भी कापालिक की तरह जुगुप्सित समझे जाते हैं । परन्तु, इसका यह अर्थ नहीं कि जैन श्रमणों में ब्राह्मण एवं क्षत्रिय ही दीक्षित होते थे। ऐसे भी उदाहरण हैं, जिनमें कुम्भकार, कुटुम्बी और आभीर को भी दीक्षा दी गई है (नि० गा० १५, १३६, १३८)। धर्म के क्षेत्र में जाति का नहीं, किन्तु भाव का अधिक महत्व है-इस तथ्य को शिवभक्त पुलिंद और एक ब्राह्मण की कथा के द्वारा प्रकट किया गया है (नि० गा० १४) ।
__ भाष्य में शबर और पुलिंद, जो प्रायः नग्न रहते थे और निलंज थे, उनका आर्यों को देखकर कुतूहल और तज्जन्य दोषों की ओर संकेत है (नि० गा० ५३१६) ।
जु गितकुल के व्यक्ति को दीक्षा देने का भी निषेध है। इस प्रसंग में जु गित के चार प्रकार बताये गये हैं। पूर्वोक्त तीन जु गितों के अतिरिक्त शरीर-जु गित भी गिना गया है। १. छरण और उत्सव में यह भेद है कि जिसमें मुख्य रूप से विशिष्ट भोजन सामग्री बनती हैं वह क्षण है।
तथा जिसमें भोजन के उपरांत लोग अलंकृत होकर, उद्यान आदि में जाकर, मित्रों के साथ कीड़ा
प्रादि करते हैं, वह उत्सव है (गा० ५२७६ चू०)। २. नि० गा० १६२२-२८, अस्वाध्याय की मान्यता में भी लोकानुसरण की ही दृष्टि मुख्य रही है
गा० ६१७१-७६ । ३. नि० गा० ३७०६, हरत पादादि की विकलता आदि के कारण शरीर-जु गित होता है
गा० ३७०६ ।
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