SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७४ निशीथ : एक अध्ययन शिकायत की जाने पर, राजा ने, पुत्र को दण्ड न देकर उलटा यह कहा कि क्या मेरा पुत्र तुम्हारा दामाद बनने योग्य नहीं ? (नि० गा० ३५७५)। एक प्रसंग में इस प्रथा का भी उल्लेख है कि यदि राजा राजनीति से अनभिज्ञ हो, व्यसनी हो, अन्तःपुर में ही पड़ा रहता हो, तो उसे गद्दी से उतार कर दूसरा राजा स्थापित कर देना चाहिए। (नि. गा० ४७९८) कालकाचार्य ने शकराजा को बुलाकर एक ऐसे ही अत्याचारी राजा गर्दभिल्ल को गद्दी से उतार दिया था (नि० गा० २८६०)। उक्त कथा में कालक प्राचार्य की बहन को उठा ले जाने की बात है। एक ऐसा भी उल्लेख है कि यदि कोई विरोधी राजा किसी राजा के प्रादरणीय प्रिय प्राचार्य को उठा ले जाए तो ऐसी दशा में शिष्य का क्या कर्तव्य है ? इससे पता चलता है कि जैन संघ ने जब राज्याश्रय लिया, तब इस प्रकार के प्रसंग भी उपस्थित होने लगे थे। राजा आदि महद्धिकों का महत्व साधुसंघ में भी माना गया है। अतएव साध्वीसंघ के ऊपर आपत्ति प्राने पर यदि कोई राजा दीक्षित साधू हुअा हो तो वह रक्षा करने के लिए साध्वी के उपाश्रय में जाकर ठहर सकता था (नि० गा० १७३५), जबकि दूसरों के लिये ऐसा करना निषिद्ध है। मथुरा में यवनों के अस्तित्व का उल्लेख है (नि० गा० ३६८६ )। जब परचक्र का भय उपस्थित होने वाला हो, तब श्रमण को अपना स्थान परिवर्तित कर लेना चाहिए; अन्यथा प्रायश्चित्त करना पड़ता है । यह इसलिये आवश्यक था कि अव्यवस्था में धर्मपालन संभव नहीं माना गया (नि० गा० २३५७)। वैराज्य शब्द के अनेक अर्थों के लिए गा० ३३६०-६३ देखनी चाहिएं । प्राचीनकाल में भी हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक, भारत, एक देश माना जाता था; किन्तु साथ ही 'देश' शब्द की संकुचित व्याख्या भी थी। यही कारण था कि सिन्धु को भी देश कहा और कोंकण को भी देश कहा (नि० गा० ४२८)। जन्म के प्रदेश को देश और उससे बाह्य को परदेश कहा गया है। तथा भारत के विभिन्न जनपदों के आचारों को देशकथा के अन्तर्गत माना गया है (नि. गा० १२५) देशों में कच्छ (गा० ३८६,), सिन्धु (गा० ३८६, ४२८, १२२५, ३३३७, ५०००), सौराष्ट्र (गा० ६०, ३८६, २७७८, ४८०२)२, कोसल गा० १२६, २००), लाट (गा० १२६, २७७८,), मालव (गा० ८१४, १०३०, ३३४७.), कोंकण (गा० १२६, २८६, ४२८,), कुरुक्षेत्र (१०२६), मगध (गा० ३३४७, ५७३३), महाराष्ट्र (१२६, ३३३७,) उत्तरापथ (१२६, २४७, ४५५), रषिणापथ (२७७८, ५०२८), रिणकंठ (सिंधदेश को ऊसरभूमि) (गा० १२२५), टक्क (८७४), दमिख (३३३७, ५७३१) गोखलय (३३३७), कुडुक्क (३३३७), करिडुक (३३ ७) ब्रह्माद्वीप, (४४७०), भाभीर विषय (४४७०), तोसली ( ४६२३, ४६२४ ), सगविसय (५७३१), थूणा (५७३३) कुणास (५७३३) इत्यादि का उल्लेख विविध प्रसंगों में है । नगरियों में आनंदपुर का नाम पाया है। प्रानंदपुर का दूसरा नाम प्रकस्थली भी था-ऐसा प्रतीत होता है (गा० ३३४४ चू०)। अयोध्या का दूसरा नाम साकेत भी है (गा० ३३४७)। मथुरानगरी में जैन साधुनों का विहार प्राचीन काल से होता आ रहा था। (गा० १२, १११६, १. नि० गा० ३३८८-८९; बृ० गा० २७८६-६. । २. कोहय (पाठांतर-कोउय) मंडलं छानउई सुरडा (गा० ४८०२) । वृ० गा० ६४६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001828
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages312
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, F000, F010, & agam_nishith
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy