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________________ श्रीपाल-चरित्र ४७ हो गया। इस रस से उस धातुर्वादी ने अपरिमित सोना तैयार किया। उसने कुमार से अनुरोध किया कि :-इसमें से आप जितना सोना ले सकें, सहर्ष ले लें। राज-कुमार ने सोना का भार वहन करना ठीक न समझने से इन्कार कर दिया। फिर भी धातुर्वादी ने थोड़ा सा सोना उनके छोर में बाँध ही दिया। अनन्तर श्रीपाल कुमार वहाँ से बिदा हो आगे चले। कुछ दिनों के बाद वे घूमते-घूमते भरूच नगर में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने सोना बेचकर सुशोभित वस्त्र और शस्त्रास्त्र मोल लिये। विद्याधर की दी हुई उन दोनों औषधियों को भी उन्होंने सोने के ताबीज में मढ़ाकर अपने हाथ में बाँध लिया। इसके बाद वे आनन्द पूर्वक नगर में घूमने और कौतुक देखने लगे। दैव-योग से इसी समय एक दूसरी घटना घटित हुई। कौसम्बी नगर में धवल नामक एक धनी-मानी व्यापारी रहता था। अगणित धन राशि का अधिकारी होने के कारण लोग उसे धनकुबेर के नाम से सम्बोधित करते थे। ऊँट और गाड़ियों में किराना लादकर व्यापार करता हुआ वह भरूच शहर में आ पहुंचा। यहाँ उसने सब किराना बेच दिया। इस व्यापार में उसे बहुत लाभ हुआ। अब उसने विचार किया, कि यहाँ से व्यापार की अन्यान्य चीजें खरीद कर जल मार्ग द्वारा कहीं विदेश जाना चाहिये। वहाँ यह चीजें बेचकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001827
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year2003
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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