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________________ ४४ पाँचवाँ परिच्छेद प्रकार का कष्ट या संकट आ पड़े तो नवपद का ध्यान करना। रात को जागते रहना और निरन्तर सावधान रहना। मैं आशीर्वाद देती हूँ कि सिद्धचक्र की अधिष्ठायक देवदेवियाँ मार्ग में तुम्हारी रक्षा करें।” इस प्रकार माता ने तो आज्ञा दे दी; किन्तु मैनासुन्दरी किसी प्रकार श्रीपाल को छोड़ना न चाहती थी। उसने कहा :-"प्राणनाथ! मैं तो आपके साथ ही रहूँगी। छाया और काया को एक दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता। रास्ते में आपकी सेवा करनेवाला भी तो कोई चाहिये। मैं एक क्षण भी आपका वियोग सहन न कर सकूँगी। दावानल के तापसे विरहानल का ताप कहीं अधिक प्रखर होता है।" श्रीपाल ने मैनासुन्दरी को आश्वासन देकर कहा :"प्रिये ! तुम्हें यहीं रहना उचित है। माता की सेवा के लिये भी तुम्हारी उपस्थिति आवश्यक है। मैं शीघ्र ही लौट आऊँगा। इस समय तुम्हें मेरे साथ चलने का आग्रह न करना चाहिये।" ___ मैनासुन्दरी ने पति की आज्ञा सहर्ष मान ली। उसने कहाः- “यदि आपकी यही आज्ञा है कि मैं साथ न चलूँ तो मैं ऐसा ही करूँगी, किन्तु आप यह निश्चय जानियेगा, कि मेरा शरीर यहाँ और प्राण आपके साथ रहेगा। अधिक क्या कहूँ? शीघ्र वापस आइयेगा। यदि विदेश में नयी स्त्रिया से ब्याह कर लें, तो इस दासी को न भूल जाइयेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001827
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year2003
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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