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________________ २१० अठारहवाँ परिच्छेद उसके पुण्य समान हैं। उपशम रस उसका अमूल्य मकरन्द सुगन्ध है । इस तरह के कल्पवृक्ष रूपी तप को मैं बारंबार नमस्कार करता हूँ। इस तप के छह बाह्य और छह अभ्यन्तर मिला कर बारह अंग हैं। यह उत्तरोत्तर विशेष गुणकारी हैं। जिस प्रकार अग्नि में तपाने से स्वर्ण का मैल दूर हो जाता है, उसी प्रकार तपश्चर्या के बल से जीव में लगा हुआ कर्मरूपी किटक दूर हो जाता है, फलतः जीवात्मा कर्म रहित दशा को प्राप्त करता है। कर्मों की निर्जरा करने का अपूर्व साधन तप ही है, किन्तु वह समता सहित और आशंसा रहित होने से ही यथार्थ फल दायी होता है। इसके द्वारा असाध्य से असाध्य लौकिक कार्य भी क्षणमात्र में सिद्ध हो जाते हैं । अतएव इस तप पद को मैं त्रिविध नमस्कार करता हूँ । राजा श्रीपाल इस प्रकार नव पद के ध्यान में लीन हो गये । अन्त में आयुष्य पूर्ण होने पर जब उनका शरीरान्त हुआ तब वे नवें आनत देवलोक में देवता के रूप में उत्पन्न हुए। मैना प्रभृति नव रानियाँ और उनकी माता कमलप्रभा का शरीरान्त होनेपर वे भी वहीं देव रूप में उत्पन्न हुईं। वहाँ पर वे देवत्व के सुख उपभोग कर, आयुष्य पूर्ण होने पर पुनः मनुष्य होंगे। इसी प्रकार चार बार मनुष्यत्व और चार बार देवत्व प्राप्त कर, वे नवें जन्म में सिद्धि सुख अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति करेंगे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001827
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year2003
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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