SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९५ श्रीपाल-चरित्र ४५ लाख योजन प्रमाण निर्मल सिद्ध शिला के ऊपर एक योजन जानेपर लोकान्त मिलता है। उस योजन के २४वें हिस्से यानी एक कोस के छठे हिस्से-३३३१/ धनुष जितनी हो अवगाहना रह जाती है। इस सिद्धिस्थान में एक-एक सिद्धिका आश्रय मान कर जिनकी सादि अनन्त स्थिति है और सर्व सिद्धिका आश्रय मान कर जिनकी अनादि अनन्त स्थिति है- अर्थात् जहाँ जानेपर फिर उन्हें संसार में आना नहीं पड़ता, ऐसे अविनाशी सुख को जिन्होंने प्राप्त किया है, उन सिद्ध भगवन्त को मैं बारंबार वन्दना करता हूँ। - एक जंगली मनुष्य राजा की कृपा से शहर में पहुँचता है और वहाँ सब प्रकार के सुखों का उपभोग कर वह जंगल को लौट आता है और जंगल में उसके इष्ट-मित्र जब उससे पूछते है कि शहर के सुख कैसे है तब स्वयं भुक्तभोगी होने पर भी वह जंगली उनका वर्णन नहीं कर सकता; क्यों कि जंगल में उसे ऐसी कोई चीजें ही नहीं दिखायी देतीं जिनसे वह शहर के सुखों की तुलना करे। इसी प्रकार केवली भगवान केवलज्ञान द्वारा सिद्ध के सुखों को जानते हैं, किन्तु संसार में कोई भी सुख ऐसा नहीं दिखायी देता, जिससे उस उपाधि रहित सुख की तुलना की जा सके। इस प्रकार के उपाधि रहित सुख के भोक्ता सिद्ध परमात्मा को मैं त्रिविध वन्दन करता हूँ। जिस प्रकार एक दीपक की ज्योति में दूसरे दीपक की ज्योति समा जाती है, उसी प्रकार एक सिद्धकी अवगाहना में उतनी ही अवगाहनावाले या उससे न्यूनाधिक अवगाहनावले अनन्त सिद्ध रहते हैं, फिर भी वहाँ संकीर्णता होती नहीं। इस प्रकार रहनेवाले, एवं इस संसार की समस्त उपाधियों से मुक्त, सहज समाधि को प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001827
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year2003
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy