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________________ १९४ अठार हवाँ परिच्छेद है। शास्त्रकारों ने इसके समाधान के लिये चार दृष्टान्त दिये हैं, वे यह हैं : जीव के उर्ध्वगमन का पहला कारण पूर्व प्रयोग है। धनुष पर बाण चढ़ा कर उसे छोड़ना पूर्व प्रयोग होता है और बाद को वह अपने ही आप लक्ष्य स्थान को पहँच जाता है। ठीक इसी तरह यह जीव भी सब कर्मप्रकृति के बन्ध, उदय, उदिरण और सत्ता का क्षय कर लेता है, तब वह उर्ध्व गमन करता है। इसे ही जीव का पूर्व प्रयोग समझना चाहिये। दूसरा कारण गति परिणाम है। जिस प्रकार अग्नि से निकला हुआ धुआँ सदा ऊपर की ही ओर जाता है, उसी प्रकार जीव की गति भी सदा ऊपर की ही ओर होती है। इसीलिये वह शरीर से अलग होते ही ऊँचे चला जाता है। तीसरा कारण बन्धन-छेद है। एरंडके फल पकने पर धूप के कारण जब फटते हैं, तब ऊपर की ओर उछलते हैं; क्योंकि उस वक्त वे बँधे रहते हैं। बन्धन का छेद होते ही वे ऊपर की ओर जाते हैं। यही गति जीव की भी है। जीव अनादि काल से कर्मबन्धन में बंधा रहता है। ज्योंही वह कर्म-प्रकृति से मुक्त होता है-आत्मा और पुद्गल का अनादि सम्बन्ध छिन्न हो जाता है त्योंही वह ऊपर की ओर चला जाता है। इसी को बन्धन छेद कहते हैं। चौथा कारण असंग-क्रिया है। कुम्हार पहले दण्ड से चक्र को घुमाता है, फिर वह अपने आप ही घूमा करता है। उसी प्रकार यह जीव भी असंग क्रिया के बल से, सर्व-मल रहित हो, उपाधि के कारणमात्र नष्ट हो जाने पर ऊँचाई की ओर गमन करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001827
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year2003
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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