SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सोलहवाँ परिच्छेद सुनकर मैं कृतकृत्य हुआ हूँ। अब मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ, कि कृपया मुझे यह बतलाईये, कि बाल्यावस्था में मुझे किस कर्म के उदय से कुष्ट रोग हुआ था ? फिर किस कर्म से वह अच्छा हो गया? किस कर्म के कारण स्थान-स्थान पर मुझे ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति हुई ? किस कर्म के कारण मैं समुद्र में गिरा ? किस कर्म के कारण मुझे भांड होने का कलंक लगा? किस कर्म से यह सब विपत्तियाँ दूर हो गयीं? और किस कर्म से मुझे इन नव स्त्रियों और राज्य की प्राप्ति हुई ? यह सब बातें जानने के लिये मैं अत्यन्त उत्सुक हो रहा हूँ । आप दयालु हैं। परोपकारी हैं। सर्वज्ञ हैं। क्या यह रहस्य मुझे बतलाने की कृपा न करेंगे?" १६६ इस तरह राजा श्रीपाल के प्रश्न करने पर अजीतसेन मुनि ने कहा :- "हे श्रीपाल ! प्राणी जो-जो कर्म करता है, वह उसे दूसरे जन्म में अवश्य ही भोगने पड़ते हैं । किए हुए कर्मों को बिना भोगे उसका नाश नहीं होता। इसलिये उसके विपाक से डरनेवाले प्राणियों को अशुभ कर्म ही न करने चाहिये। इस संसार में जो सुख या दुःख प्राप्त होता है वह सब शुभाशुभ कर्मों के ही कारण प्राप्त होता है । राजा या रंक" दरिद्र या चक्रवर्ती, सबको कर्म के ही अधीन रहना पड़ता है कर्म के आगे किसी का बल नहीं चलता। इसलिये पूर्व संचित कर्मों को सम्यग् भाव से सहन करने चाहिये और नये अशुभ कर्म न करने चाहिये। अब मैं तुम्हारे पूर्व जन्म 'का वृत्तान्त वर्णन करता हूँ, उसे सुनो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001827
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year2003
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy