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________________ श्रीपाल-चरित्र १६५ मोक्ष-प्राप्ति करने में सम्यक्त्व और ज्ञानकी जितनी आवश्यकता बतलायी गयी है, उतनी ही आवश्यकता शुद्ध चारित्र की भी मानी गयी है। जो प्राणी आत्म-ज्ञान में मग्न होता है, वह पुदगल के खेलों को इन्द्रजाल के समान मानता है। उनमें वह किसी प्रकार आसक्त नहीं होता। आत्मज्ञानी के लिये संसार में आसक्त होना संभव ही नहीं है ; क्योंकि वह तो पुद्गल के उत्पत्ति और विनाश धर्म को भली-भाँति समझता है। इसीलिये वह उनमें लुब्ध नहीं होता। वह जानता है कि पुद्गलों में लुब्ध होने के कारण ही मैं अनन्त काल से संसार में भटक रहा हूँ, इसलिये अब उसमें पड़ना ठीक नहीं। जिस प्रकार अज्ञानी इन्द्रजाल को सत्य मानता है, ज्ञानी नहीं मानता, उसी प्रकार अज्ञानी ही पौद्गलिक पदार्थों में आसक्त होता है। जो ज्ञानी के वचन सुनकर आत्मा को पहचान लेता है और क्षीर-नीर की भाँति सारा-सार समझ कर साधना करता है, वह आठ कर्मों के आवरण को दूरकर आत्मा के मूल गुण को प्रकट करता है और उसे ही सिद्ध पद की प्राप्ति होती है, इसलिये हे भव्य प्राणियो! तुम्हें आत्मा को पहचानने और उसके मूल स्वरूप को प्रकट करने की सदैव चेष्टा करनी चाहिये। इस प्रकार अजीतसेन मुनि का धर्मोपदेश श्रवणकर राजा श्रीपाल खड़े हो, हाथ जोड़ कर उनसे प्रश्न करने लगे:-“पूज्य गुरुदेव! आपने जो धर्मोपदेश दिया, उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001827
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year2003
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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