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श्रीपाल - चरित्र
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इसीलिये उसने सोते हुए सिंह को जगाने का दुःसाहस किया है। उससे कह देना, कि यदि वह मुझे छोड़ देगा, तो उसकी इज्जत बचनी कठिन हो जायेगी । तू अपने राजा की सेना को बहुत बड़ी बतलाता है, किन्तु वह दूसरों के लिये बड़ी होगी। मैं अकेला ही उसके सैन्य सागर में वड़वानल की तरह काम करूँगा। अपने राजा से कहना, कि बलकी परीक्षा बातों से नहीं हुआ करती । कौन बलवान और कौन निर्बल है यह युद्ध क्षेत्र में आप ही सिद्ध हो जायेगा । तेरे राजा ने रण के लिये जो निमन्त्रण भेजा है, उसे मैं सहर्ष स्वीकार करता हूँ ।”
राजा अजीत सेन का यह उत्तर लेकर चतुर्मुख उसी समय उज्जैन के लिये चल पड़ा। वहाँ पहुँचने पर उसने श्रीपाल से सब बातें कह सुनायीं । सुनते ही श्रीपाल को क्रोध आ गया। उसी समय वह सेना को सुसज्जित कर चम्पानगरी के समीप पहुँचे। वहाँ नदी के तटपर एक उपयुक्त स्थान देखकर शिविर की स्थापना की। अजीतसेन को यह समाचार पहले ही से मिल चुके थे, इसलिये वह भी अपनी सेना लेकर श्रीपाल के सामने आ डटे।
लड़ाई करने के पहले अनेक प्रकार के मंगलाचार किये गये। जब लड़ाईका समय हुआ तब चारों ओर रणभेरियाँ बज उठीं। सैनिकों ने शस्त्रों की पूजा की । भाटचारणों ने बरदावली गा-गाकर उनको मरने मारने के
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