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________________ १४२ पन्द्रहवाँ परिच्छेद रहे, कि उनकी अपार सेना के सम्मुख आपकी सेना किसी हिसाब में नहीं है। आप किसी तरह उनका मुकाबला नहीं कर सकते। निर्बल होकर बलवान से युद्ध करना जान-बूझकर ही संसार में अपनी हंसी कराना है। यदि आप मेरी बातों पर ध्यान न देंगे और श्रीपाल से युद्ध करने की तैयारी करेंगे, तो निःसंदेह संसार आपके ऊपर हँसेगा। फिर जैसी आपकी इच्छा।" दूत की यह बातें सुनकर राजा अजीतसेन मारे क्रोध के आगबबूला हो गये। उनके शिर पर मानो भूत सवार हो गया। उन्होंने गरज कर कहा :- “हे दूत! तू अपने स्वामी के पास जाकर उनसे कह दे, कि चम्पानगरी का राज्य इतनी आसानी से नहीं मिल सकता। जिस प्रकार भोजन में मधुर, अम्ल, और कटु किंवा तिक्त स्वाद के पदार्थ आदि मध्य और अन्त में उपस्थित किये जाते हैं, उसी तरह तूने सभी तरह की बातें मेरे सामने कही हैं। तेरे इस गुण के कारण शायद तेरा नाम चतुर्मुख पड़ा है। तूने कहा है कि श्रीपाल को बालक समझकर कला-कुशलता प्राप्त करने के लिये मैंने उसे विदेश भेजा था; किन्तु यह सत्य नहीं है। मैं उसे अपना मानता ही नहीं, बल्कि अपना शत्रु समझता हूँ। केवल बालक समझ कर ही मैंने उसे जीता छोड़ दिया था। सम्भव है कि इस समय वह बलवान हो गया हो, किन्तु मैं उससे निर्बल नहीं हूँ। मैं समझता हूँ कि श्रीपाल पर अब यमराज ने नजर लगायी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001827
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year2003
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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