SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पन्द्रहवाँ परिच्छेद युद्ध में विजय इस समय श्रीपाल के दिन बड़े ही आनन्द में व्यतीत हो रहे थे। उन्हें अब कोई कष्ट न था । एक ओर उनके पास जैसी अपार सम्मत्ति थी, दूसरी ओर वैसी ही सेना और राजसी ठाठ-बाट था। सिर्फ कमी उन्हें एक ही बात की थी और वह यह थी, कि उनके पिता का राज्य अब तक उनके अधिकार में नहीं आया था । इसी सम्बन्ध में एक दिन उनसे मतिसागर मन्त्री ने कहाः- “कुमार ! तुम्हें यह तो मालूम ही है, कि मैंने तुम्हें तुम्हारे पिता के राज-सिंहासन पर आसीन कराया था; किन्तु तुम्हारे काका अजीतसेन ने तुम्हारी बाल्यावस्था से लाभ उठाते हुए तुम्हारा राज्य अधिकृत कर लिया था । अब तुम्हें वह राज्य पुनः प्राप्त करना चाहिये । बल होने पर भी यदि पिता का राज्य प्राप्त न किया जा सके, तो बल बेकार है। यदि तुम अपने पिता का राज्य नहीं ले सकते तो फिर यह सेना और यह साज - सम्मान किस लिये ? मेरी राय है, कि हम लोगों को भीतर-ही-भीतर तैयारी कर अचानक आक्रमण कर देना चाहिये। इससे अनायास ही वह राज्य हमारे हाथों में आ सकता है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001827
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year2003
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy