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पद्मपुराणे
छन्दः (?)
कर्मणामिदीदशमीहितं बुद्धिमानपि यदेति विमूढताम् । अन्यथा श्रुतसर्वनिजायतिः कः करोति न हितं सचेतनः ॥५४॥ एवमेतदहो त्रिदशाः स्थितं देहिनामपरमत्र किमुच्यताम् । कृत्यमत्र भवारिविनाशनं यत्नमेत्य परमं सुचेतसा ॥५५॥
मालिनीच्छन्दः
इति सुरपतिमार्ग तत्वमार्गानुरक्तं जिनवरगुणसङ्गात्यन्तपूतं मनोज्ञम् । रविशशिमरुदाथाः प्राप्य चेतोविशुद्धा भवभयमभिजग्मुर्मानवस्वाभिकाङ्क्षाः ॥५६॥ इत्याचे श्रीपद्मचरिते रविषेणाचार्यप्रणीते शकसुरसंकथाभिधानं नाम
चतुर्दशोत्तरशतं पर्व ॥११४॥
कैसे समर्थ हो सकता है ? ॥५३॥ कर्मको यह ऐसी ही अद्भुत चेष्टा है कि बुद्धिमान् मनुष्य भी विमोहको प्राप्त हो जाता है अन्यथा जिसने अपना समस्त भविष्य सुन रक्खा है ऐसा कौन सचेतन प्राणी आत्महित नहीं करता ॥५४|| इस प्रकार अहो देवो! प्राणियोंके विषयमें यहाँ
और क्या कहा जाय? इतना ही निश्चित हुआ कि उत्तम प्रयत्न कर अच्छे हृदयसे संसार रूपी शत्रुका नाश करना चाहिए ।।५५।। गौतम स्वामी कहते हैं कि इस प्रकार यथार्थ मार्गसे अनुरक्त एव जिनेन्द्र भगवान्के गुणोंके संगसे अत्यन्त पवित्र, सुरपतिके द्वारा प्रदर्शित मनोहर मागेको पाकर जिनके चित्त विशुद्ध हो गये थे तथा जो मनुष्य-पर्याय प्राप्त करनेकी आकांक्षा रखते थे ऐसे सूर्य, चन्द्र तथा कल्पवासी आदि देव संसारसे भयको प्राप्त हुए ॥५६॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, श्री रविषेणाचार्य द्वारा प्रणीत पद्मपुराणमें इन्द्र और देवोंके
बीच हुई कथाका वर्णन करनेवाला एकसौ चौदहवाँ पर्व पूर्ण हुआ ॥११४॥
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