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द्विनवतितमं पर्व
तस्माद्दानमिदं दत्त्वा वत्स स्वमधुना भज । सागारशीलनियमं कुरुजन्मार्थसङ्गतम् ॥ ७१ ॥ जायतां मथुरालोकः सम्यग्धर्मपरायणः । दयावात्सल्यसम्पन्नो जिनशासनभावितः ॥ ७२ ॥ स्थाप्यन्तां जिनबिम्बानि पूजितानि गृहे गृहे । अभिषेकाः प्रवर्त्यन्तां विधिना पाल्यतां प्रजा ॥७३॥ सप्तर्षिप्रतिमा दिक्षु चतसृष्वपि यत्नतः । नगर्यां कुरु शत्रुध्न तेन शान्तिर्भविष्यति ॥ ७४ ॥ अद्यप्रभृति यद्गेहे बिम्बं जैनं न विद्यते । मारी भच्यति यद्वद्याघ्री यथाऽनाथं कुरङ्गकम् ||७५ || यस्यांगुष्ठप्रमाणापि जैनेन्द्री प्रतियातना । गृहे तस्य न मारी स्वातायभीता यधोरगी ॥ ७६ ॥ ॥ यथाऽऽज्ञापयतीत्युक्ताः शत्रुघ्नेन प्रमोदिना । समुत्पत्य नभो याताः साधवः साधुवाञ्छिताः । ७७ || अथ निर्वाणधामानि परिसृत्य प्रदक्षिणम् । मुनयो जानकीगेहमवतेरुः शुभायनाः ॥ ७८ ॥ वहन्ती सम्मदं तुङ्गं श्रद्धादिगुणशालिनी । परमान्नेन तान् सीता विधियुक्तमपारयत् ॥७६॥ जानक्या भक्तितो दत्तमन्नं सर्वगुणान्वितम् । भुक्त्वा पाणितले दवाऽऽशीर्वादं मुनयो ययुः ॥८०॥ नगर्या बहिरन्तश्च शत्रुघ्नः प्रतिमास्ततः । भतिष्ठिपजिनेन्द्राणां प्रतिमारहितात्मनाम् ॥८१॥ सप्तर्षिप्रतिमाश्वापि काष्टासु चतसृष्वपि । अस्थापयन्मनोज्ञाङ्गा सर्वेतिकृतवारणाः ||३२|| पृष्ठे त्रिविष्टपस्यैव "पुरमन्यां न्यवेशयत् । मनोज्ञां सर्वतः स्फीतां सर्वोपद्रववर्जिताम् ||८३ || योजनत्रय विस्तारां सर्वतस्त्रिगुणां च यत् । 'अधिकां मण्डलखेन स्थितामुत्तमतेजसम् ||८४|| आपातालतलाद् भिन्नमूलाः पृथ्व्यो मनोहराः । परिखा भाति सुमहासीलवासगृहोपम| ||८५||
१८. १
इसलिए हे वत्स ! तू यह दान देकर इस समय गृहस्थ के शीलव्रतका नियम धारण कर तथा अपना जीवन सार्थक बना ॥७०-७१ ॥ मथुरा के समस्त लोग समीचीन धर्मके धारण करने में तत्पर, दया और वात्सल्य भाव से सम्पन्न तथा जिन शासनको भावनासे युक्त हों ॥ ७२ ॥ घरघर में जिन प्रतिमाएँ स्थापित की जावें, उनकी पूजाएँ हों, अभिषेक हों और विधिपूर्वक प्रजाका पालन किया जाय ||७३|| हे शत्रुघ्न ! इस नगरीकी चारो दिशाओं में सप्तर्षियों की प्रतिमाएँ स्थापित करो। उसीसे सब प्रकारको शान्ति होगी || ७४|| आज से लेकर जिस घर में जिन प्रतिमा नहीं होगी उस घरको मारी उस तरह खा जायगी जिस तरह कि व्याघ्री अनाथ मृगको खा जाती है || ७५|| जिसके घर में अंगूठा प्रमाण भी जिन प्रतिमा होगी उसके घर में गरुड़से डरी हुई सर्पिणी के समान मारीका प्रवेश नहीं होगा ||७६ ॥ तदनन्तर 'जैसी आप आज्ञा करते हैं वैसा ही होगा' इस प्रकार हर्ष से युक्त सुग्रीव ने कहा और उसके बाद उत्तम अभिप्रायको धारण करनेवाले वे सभी साधु आकाश में उड़कर चले गये ॥७७॥
अथानन्तर निर्वाण क्षेत्रोंकी प्रदक्षिणा देकर शुभगतिको धारण करनेवाले वे मुनिराज सीता के घरमें उतरे ||७८|| सो अत्यधिक हर्षको धारण करनेवाली एवं श्रद्धा आदि गुणोंसे सुशोभित सीताने उन्हें विधि पूर्वक उत्तम अन्नसे पारणा कराई || ७६ || जानकीके द्वारा भक्ति पूर्वक दिये हुए सर्वगुणसम्पन्न अन्नको अपने हस्ततलमें ग्रहणकर तथा आशीर्वाद देकर वे मुनि चले गये ||८०|| तदनन्तर शत्रुघ्नने नगर के भीतर और बाहर सर्वत्र उपमा रहित जिनेन्द्र भगवान्की प्रतिमाएँ स्थापित कराई ||८१|| और सुन्दर अवयवों की धारक तथा समस्त ईतियोंका निवारण करनेवाली सप्तर्षियोंकी प्रतिमाएँ भी चारों दिशाओं में विराजमान कराई ||८२|| उसने एक दूसरी ही नगरीकी रचना कराई जो ऐसी जान पड़ती थी मानो स्वर्गके ऊपर ही रची गई हो । वह सब ओर से मनोहर थी, विस्तृत थी, सब प्रकार के उपद्रवोंसे रहित थी, तीन योजन विस्तार वाली थी, सब ओर से त्रिगुण थी, विशाल थी, मण्डलाकार में स्थित थी और उत्तम तेजकी धारक थी || ८३-८४|| जिनकी जड़ें पातालतक फूटी थीं ऐसी सुन्दर वहाँ की भूमियाँ थीं तथा जो बड़े
१. प्रतिमा । २. त्युक्त्वा म० ज० । ३. पारणां कारयामास । ४. उपमारहितानाम् । ५ पुरी ज० । ६. अधिकं म० । ७. परितो म० । ८. शाल म० ।
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