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द्विनवतितमं पर्व
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लब्धां परगृह भिक्षां पाणिपात्रतलस्थिताम् । शरीरतिमात्राय जक्षुस्ते तपणोत्तमाः॥१४॥ नभोमध्यगते भानावन्यदा ते महाशमाः । साकेतामविशन् वीरा युगमात्रावलोकिनः ॥१५॥ शुद्धभिक्षपणाकूताः प्रलम्बितमहाभुजाः । अर्ह इत्तगृहं प्राप्ता भ्राम्यन्तस्ते यथाविधि ॥१६॥ अहहत्तश्च सम्प्राप्तश्चिन्तामेतामसम्भ्रमः । वर्षाकालः क चेदक्षः क्व चेदं मुनिचेष्टितम् ॥१७॥ प्राग्भारकन्दरासिन्धुतटे मूले च शाखिनः । शून्यालये जिनागारे ये चान्यत्र क्वचिस्थिताः॥१८॥ नगयाँ श्रमणा अस्यां नेमे समयखण्डनम् । कृत्वा हिण्डनशीलत्वं प्रपद्यन्ते सुचेष्टिताः॥१६॥ प्रतिकूलितसूत्रार्था एते तु ज्ञानवर्जिताः । निराचार्या निराचाराः कथं कालेऽत्र हिण्डकाः ॥२०॥ भकालेऽपि किल प्राप्ताः स्नुषयाऽस्य सुभक्तया । तर्पिताः प्राप्तकानेन ते गृहीतार्थया तया ॥२१॥ आहतं भवनं जग्मुः शुद्धसंयतसङ्कुलम् । यत्र त्रिभुवनानन्दः स्थापितो मुनिसुव्रतः ॥२२॥ चतुरङ्गुलमानेन ते त्यक्तधरणीतलाः । आयान्तो द्युतिना दृष्टा लब्धिप्राप्ताः प्रसाधवः ॥२३॥ पद्यामेव जिनागारं प्रविष्टाः श्रद्धयोद्धया। अभ्युत्थाननमस्यादिविधिना द्युतिनार्चिताः ॥२४॥ अस्मदीयोऽयमाचार्यो यत्किञ्चिद्वन्दनोद्यतः । इति ज्ञात्वा धुतेः शिष्या दध्युः सप्तर्षिनिन्दनम् ॥२५॥ जिनेन्द्रवन्दनां कृत्वा सम्यक स्तुतिपरायणाः । यातास्ते वियदुत्पत्य स्वमाश्रमपदं पुनः ॥२६॥
चारणश्रमणान् ज्ञात्वा मुनीस्ते मुनयः पुनः । स्वनिंदनादिना युक्ताः साधुचित्तमुपागताः ॥२७॥ पारणा करते थे ॥१३।। वे उत्तम मुनिराज परगृहमें प्राप्त एवं हस्तरूपी पात्रमें स्थित भिक्षाको केवल शरीरकी स्थिरताके लिए ही भक्षण करते थे ॥१४॥
अथानन्तर किसी एक दिन जब कि सूर्य आकाशके मध्यमें स्थित था तब महा शान्तिको धारण करने वाले वे धोर-वीर मुनिराज जूड़ा प्रमाण भूमिको देखते हुए अयोध्या नगरीमें प्रविष्ट हए ॥१५॥ जो शुद्ध भिक्षा ग्रहण करनेके अभिप्रायसे युक्त थे और जिनकी लम्बी-लम्बी भुजाएँ नीचे की ओर लटक रही थीं ऐसे वे मुनि विधि पूर्वक भ्रमण करते हुए अर्हहत्त सेठके घर पहुँचे ॥१६॥ उन मुनियोंको देखकर संभ्रमसे रहित अर्हहत्त सेठ इस प्रकार विचार करने लगा कि यह ऐसा वर्षा काल कहाँ और यह मुनियोंकी चेष्टा कहाँ ? ॥१७।। इस नगरीके आस-पास प्राग्भार पर्वतकी कन्दराओंमें, नदीके तटपर, वृक्षके मूलमें, शून्य घरमें, जिनालयमें तथा अन्य स्थानोंमें जहाँ कहीं जो मुनिराज स्थित हैं उत्तम चेष्टाओंको धारण करनेवाले वे मुनिराज समयका खण्डन कर अर्थात् वषो योग पूरा किये बिना इधर-उधर परिभ्रमण नहीं करते ॥१८-१६॥ परन्तु ये मुनि आगमके अर्थको विपरीत करनेवाले हैं, ज्ञानसे रहित हैं, आचार्यों से रहित हैं और आचारसे भ्रष्ट हैं इसीलिए इस समय यहाँ घूम रहे हैं ॥२०॥ यद्यपि वे मुनि असमयमें आये थे तो भी अहहत्त सेठकी भक्त एवं अभिप्रायको ग्रहण करनेवाली वधूने उन्हें आहार देकर सन्तुष्ट किया था ।।२१।। आहारके बाद वे शुद्ध-निर्दोष प्रवृत्ति करनेवाले मुनियोंसे व्याप्त अर्हन्त भगवान् के उस मन्दिरमें गये जहाँ कि तीन लोकको आनन्दित करनेवाले श्री मुनिसुव्रत भगवान्की प्रतिमा विराजमान थी ।।२२।। अथानन्तर जो पृथिवीसे चार अंगुल ऊपर चल रहे थे ऐसे उन ऋद्धिधारी उत्तम मुनियोंको मन्दिर में विद्यमान श्री धुतिभट्टारकने देखा ।।२३॥ उन मुनियोंने उत्तम श्रद्धाके साथ पैदल चल कर ही जिन मन्दिरमें प्रवेश किया तथा द्युतिभट्टारकने खड़े होकर नमस्कार करना आदि विधिसे उनकी पूजा की ।।२४।। 'यह हमारे आचार्य चाहे जिसकी वन्दना करनेके लिए उद्यत हो जाते हैं।' यह जानकर द्युतिभट्टारकके शिष्योंने उन सप्तर्षियोंकी निन्दा का विचार किया ।।२५।। तदनन्तर सम्यक् प्रकारसे स्तुति करनेमें तत्पर वे सप्तर्षि, जिनेन्द्र भगवान्की वन्दना कर आकाशमार्गसे पुनः अपने स्थानको चले गये ॥२६।। जब वे आकाशमें उड़े तब उन्हें चारण ऋद्धिके धारक जान कर द्युतिभट्टारकके शिष्य जो अन्य मुनि थे वे अपनी
१. शालिनः म । २. नन्दनम् म० । वन्दनम् ख० |
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