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अशीतितमं पर्व
देवलोकमसौ गत्वा च्युतः श्रीवद्धितोऽभवत् । अधुना पूर्वकं जन्म मातुस्तव वदाम्यहम् ॥१३५॥ एको वैदेशिको भ्राम्यन् ग्रामं क्षुद्वद्याधितोऽविशत् । स भोजनगृहे भुक्तिमलब्ध्वा कोपसङ्गतः ॥ १६६ ॥ सर्व ग्रामं दहामीति निगद्य 'कटुकस्वरम् । निष्क्रान्तः सृष्टितोऽसौ च ग्रामः प्राप्तः प्रदीपनम् ॥ १६७॥ ग्राम्यैरानीय सङ्क्रुद्धैः क्षिप्तोऽसौ तत्र पावके । मृतो दुःखेन सम्भूतः सूपकारी नृपालये ॥ १६८ ॥ ततो मृता परिप्राप्ता नरकं घोरवेदनम् । तस्मादुत्तीर्य माताऽभूत्तव मित्रयशोऽभिधा ॥ १३६ ॥ बभूव पोदनस्थाने नाम्ना गोवाणिजो महान् । भुजपत्रेति तद्भार्या सौकान्तिः सोऽभवन्मृतः ॥ २००॥ भुजपत्रापि जाताऽस्य कामिनी रतिवर्द्धनी । पीडनाद्गर्दभादीनां पुरा भारं च वाहितौ ॥२०१॥ एवमुक्त्वा मयो व्योम भासयन् स्वेप्सितं ययौ । श्रीवद्धितोऽपि नगरं प्राप्तबन्धुसमागमः ॥२०२॥ पूर्वभाग्योदयाद्राजन् संसारे चित्रकर्मणि । राज्यं कश्चिदवाप्नोति प्राप्तं नश्यति कस्यचित् ॥२०३॥ अप्येकस्माद्गुरोः प्राप्य जन्तूनां धर्मसङ्गतिम् । निदाननिनिंदानाभ्यां मरणाभ्यां पृथग्गतिः ॥२०४॥ उत्तरन्त्युदधिं केचिद्रत्नपूर्णाः सुखान्विताः । मध्ये केचिद्विशीर्यन्ते तटे केचिद्धनाधिपाः ॥२०५॥ इति ज्ञात्वात्मनः श्रेयः सदा कार्य मनीषिभिः । दयादमतपः शुद्धया विनयेनागमेन वा ॥ २०६॥ सकलं पोदनं नूनं तदा मयवचःश्रुतेः । उपशान्तमभूद्ध मंगतचित्तं" नराधिप ॥२०७॥
वह आठ गाँवोंसे संतुष्ट हो श्रावक हो गया || १६४ ॥ आयुके अन्तमें वह स्वर्ग गया और वहाँ से हो श्रीवर्धित हुआ। इतना कहकर मय मुनिराजने कहा कि अब मैं तुम्हारी माताका पूर्व भव कहता हूँ ||१५||
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एक बार एक विदेशी मनुष्य भूख से पीड़ित हो घूमता हुआ नगर में प्रविष्ट हुआ । नगरकी भोजनशाला में भोजन न पाकर वह कुपित होता हुआ कटुक शब्दोंमें यह कहकर बाहर निकल · गया कि 'मैं समस्त गाँवको अभी जलाता हूँ' । भाग्यकी बात कि उसी समय गाँव में आग लग गई ॥ १६६ - १६७ ॥ तब क्रोध से भरे ग्रामवासियोंने उसे लाकर उसी अग्नि में डाल दिया, जिससे दुःखपूर्वक मरकर वह राजाके घर रसोइन हुआ || १६८ || तदनन्तर मरकर घोर वेदनासे युक्त नरक पहुँची और वहाँसे निकलकर तुम्हारी माता मित्रयशा हुई है ॥ १६६॥ पोदनपुर में एक गोवाणिज नामका बड़ा गृहस्थ था, भुजपत्रा उसकी स्त्रीका नाम था । गोवाणिज मरकर सिंहेन्दु हुआ और भुजपत्रा उसकी रतिवर्धनी नामकी स्त्री हुई। इन दोनोंने पूर्वभवमें गर्दभ आदि पशुओं पर अधिक बोझ लाद-लाद उन्हें पीड़ा पहुँचाई थी इसलिए उन्हें भी तंबोलियों का भार उठाना पड़ा ॥२००--२०१॥ इस प्रकार कहकर मय मुनिराज आकाशको देदीप्यमान करते हुए अपने इच्छित स्थानपर चले गये और श्रीवर्धित भी इष्टजनोंका समागम प्राप्त कर नगर में चला गया ॥ २०२ ॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! इस विचित्र संसार में पूर्वकृत भाग्यका उदय होनेपर कोई राज्यको प्राप्त होता है और किसीका प्राप्त हुआ राज्य नष्ट हो जाता है || २०३ || एक ही गुरु धर्मको संगति पाकर निदान अथवा निदानरहित मरणसे जीवांकी गति भिन्न-भिन्न होती है ॥ २०४ ॥ रत्नोंसे पूर्णताको प्राप्त हुए कितने ही धनेश्वरी मनुष्य सुखपूर्वक समुद्रको पार करते हैं, कितने ही बीचमें डूब जाते हैं और कितने ही तटपर डूब मरते हैं ॥ २०५ || ऐसा जानकर बुद्धिमान मनुष्यों को सदा दया, दम, तपश्चरणकी शुद्धि, विनय तथा आगम के अभ्यास से आत्माका कल्याण करना चाहिए || २०६ ॥ हे राजन् ! उस समय मय मुनिराजके वचन सुनकर समस्त
१. कटुकः स्वरम् म० । २. संक्रुद्धः । ३. धर्मसंगतिः म०, ख० ज० । ४ तपस्तुष्टया ज० । ५. चित्तं म० ।
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