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पद्मपुराणे शनैः शनैस्ततः कम्पं तदिग्न्यस्तेक्षणोऽमुचत् । ममार्ज च ललाटस्थान् स्वेदबिन्दून् स्थवीयसः ॥१३॥ समादधे स्खलस्पाणिर्जटामारं समाकुलम् । मुहुः स्मृता च निःश्वासान्मुमुचे दीर्घवेगिनः ॥१४॥ ततः स्वैरं भयाद् भ्रष्टो दध्यावेवं प्रकोपवान् । 'निश्चलस्थितशेषाङ्गो मूर्धानं कम्पयन मनाक् ॥१५॥ अदुष्टमानसः पश्यन् यातो रूपदिदृक्षया । रामानुरागतः प्रापमवस्था मृत्युगोचराम् ॥१६॥ अहो प्रौढकुमार्यास्तच्चेष्टितं दुष्टविभ्रमम् । गृहीतोऽस्मि नयेनैष कृतान्तसदृशैर्न रैः ॥१७॥ क्व मे पापाधुना याति व्यसने पातयामि ताम् । नृत्याम्यातोद्यमुक्तोऽपि किमुतातोद्यसंयुतः ॥१८॥ विचिन्त्यैवं दूतं गत्वा नगरं रथन पुरम् । सीतारूपं पटे न्यस्य प्रत्यक्षमिव सुन्दरम् ॥१९॥ चकारोपवने चन्द्रगतेः क्रीडनसद्मनि । उत्सृज्य च बहिस्तस्थौ पुरस्याप्रकटात्मकः ॥२०॥ अन्यदाथ समुद्देशं कुमारै बहुभिः समम् । मामण्डलकुमारोऽसौ रममाणः समाययौ ॥२१॥ तत्राज्ञानात् समालोक्य स्वसारं चित्रगोचराम् । द्वीश्रतिस्मृतिमुक्तात्मा द्वाक प्रभामण्डलोऽभवत् ॥२२॥ ततः शोचति निश्वासान्मुञ्चतेऽत्यन्तमायतान् । शुष्यति क्षिपति स्रस्तं गात्रं यत्र क्वचिद् द्रुतम् ॥२३॥ न रात्री न दिवा निद्रा लभते ध्यानतत्परः । उपचारेण कान्तेन न जातु सुखमश्नुते ॥२४॥ पुष्पाणि गन्धमाहारं द्वेष्टि क्ष्वैडं यथा भृशम् । करोति लोठनं भूयः संतापी जलकुहिमे ॥२५॥
ज्वालाओंसे झुलसा पक्षी किसी बड़े दावानलसे बाहर निकलता है उसी प्रकार मैं भी उस कष्टसे बाहर निकला हूँ ॥१२॥ उस समय भी उसके नेत्र उसी दिशामें लग रहे थे। तदनन्तर धीरे-धीरे उसने शरीरकी कंपकंपी छोड़ी और ललाटपर स्थित पसीनेकी बड़ी-बड़ी बूंदें पोंछीं ॥१३॥ उसने कांपते हुए हाथसे अपनी बिखरी हुई जटाएं ठोक की। यह करते हुए जब उसे बार-बार पिछली घटनाका स्मरण हो आता था तब वह लम्बी-लम्बी साँसें छोड़ने लगता था ॥१४।। तत्पश्चात् जब भय दूर हुआ तो क्रोधमें आकर वह इस प्रकार विचार करने लगा। विचार करते समय उसके समस्त अंग निश्चित रूपसे स्थिर थे केवल वह मस्तकको कुछ-कुछ हिला रहा था ।१५।। वह विचारने लगा कि देखो मेरे मनमें कोई दोष नहीं था मैं केवल रामचन्द्रके अनुरागसे सीताका रूप देखनेकी इच्छासे ही वहाँ गया था परन्तु ऐसी दशाको प्राप्त हो गया जिसमें मृत्यु तककी आशंका हो गयी ॥१६।। आश्चर्य है कि उस प्रौढ़ कुमारीकी वह चेष्टा कितनी दुष्टतासे भरी थी कि जिसके कारण मैं यमराजकी समानता करनेवाले मनुष्योंके द्वारा पकड़ लिया गया ॥१७|| वह पापिनी अब जायेगी कहाँ ? मैं उसे अवश्य ही संकट में डालँगा। मैं तो बाजेके बिना ही नाचता हूँ फिर यदि बाजे मिल जायें तो कहना ही क्या है ? ॥१८॥ ऐसा विचारकर उसने एक पटपर प्रत्यक्षके समान सीताका सुन्दर चित्र बनाया और उसे लेकर वह शीघ्र ही रथनूपुर नगर गया ||१९|| वहाँ जाकर उसने उपवन में जो अत्यन्त उत्तुंग क्रीड़ाभवन था उसमें वह चित्रपट रख दिया और स्वयं अप्रकट रहकर नगरके बाहर रहने लगा ॥२०॥
__ अथानन्तर किसी दिन अनेक कुमारोंके साथ क्रीड़ा करता हुआ भामण्डल कुमार वहाँ आया ।।२१।। सो चित्रमें अंकित बहन सीताको देखकर वह अज्ञानवश शीघ्र ही लज्जा, शास्त्र, ज्ञान तथा स्मृतिसे रहित हो गया अर्थात् सीताके चित्रको देखकर इतना कामाकुलित हुआ कि लज्जा, शास्त्र तथा स्मृति आदि सबको भूल गया ।।२२।। वह निरन्तर शोक करने लगा, अत्यन्त लम्बे श्वासोच्छ्वास छोड़ने लगा, उसका शरीर सूख गया तथा शिथिल शरीरको वह चाहे जहां उपेक्षासे डालने लगा अर्थात् चाहे जहाँ उठने-बैठने लगा ।।२३।। उसे न रात्रिमें नींद आती थी न दिनमें चैन पड़ता था। वह रात-दिन उसीके ध्यानमें निमग्न रहता था। सुन्दर उपचारोंसे उसे कभी भी सुख नहीं मिलता था ॥२४॥ वह पुष्प, सुगन्धित पदार्थ तथा आहारसे ऐसा द्वेष करता था १. निश्चितस्थित म.। २. चन्द्रगतः ज.। ३. रम्येण । ४. विषनिमितम् ।
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