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Chapter Forty-Six 401. Then I was struck by the power of Chandarava. I fell from the sky into the dense Mahendrodaya forest of Ayodhya at night. ||27|| Seeing me falling like a star, the king of Saketa, Bharata, came near me. ||28|| His chest was pierced by the weapon, and he was drenched in sandalwood water. Seeing me, that compassionate and virtuous man, ||29|| The weapon fled somewhere, and my form returned to its former state. I gained great happiness from that fragrant water. ||30|| That great soul, Bharata, the king of men, gave me this rebirth, the fruit of which is your sight. ||31|| Meanwhile, Rama, the beautiful son of Raghu, filled with joy, asked him, "Bhadra, do you know the origin of that fragrant water?" ||32|| He said, "O Dev, I know. Listen, I will tell you. I asked King Bharata, and he told me this." ||33|| "This entire country, including cities and villages, was afflicted by many incurable diseases." ||34|| "There were chest pains, severe fever, excessive salivation, pain all over the body, loss of appetite, vomiting, swelling, and boils. All these diseases were raging like angry demons. There was not a single creature in this land who was not afflicted by them." ||35-36|| "Only Drona Megha, the king, along with his ministers, animals, and relatives, was healthy like a god in his own city. I heard this." ||37|| "I called him and said, 'O Mam, just as you are healthy, you are capable of making me healthy immediately.'" ||38|| Then he called for the water that filled the sky with its fragrance and sprinkled it on me. I attained complete health. ||39||
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________________ चतुःषष्टितमं पर्व ४०१ ततोऽहं चण्डरवया शक्त्या तेन समाहतः । खान्महेन्द्रोदयोद्याने नक्तं निपतितो घने ।।२७॥ पतन्तं मां समालोक्य तारकाबिम्बसंनिमम् । साकेताधिपतिस्ती ' भरतः समढौकत ॥२८॥ शक्तिशल्यितवक्षाश्च सिक्तश्चन्दनवारिणा । तेनाहं करुणातैन साधुना जीवदायिना ॥२९॥ शक्तिः पलायिता क्वापि जातं रूपं च पूर्वकम् । अधिकं च सुखं जातं तेन मे गन्धवारिणा ॥३०॥ तेन मे पुरुषेन्द्रेण भरतेन महात्मना । जन्मान्तरमिदं दत्तं फलं यस्य त्वदीक्षणम् ॥३१॥ अत्रान्तरे स संभ्रान्तः सुरूपो रघुनन्दनः । पप्रच्छ भद्र जानासि तद्गन्धोदकसंभवम् ॥३२॥ सोऽवोचद्देव जानामि श्रयतां वेदयामि ते । पृष्टो हि स मया राजा तेन चेति निवेदितम् ॥३३॥ यथा किल समस्तोऽयं देशः पुरसमन्वितः । अभिभूतो महारोगैरासीदप्रतिकारकैः ॥३४॥ उरोधातमहादाहज्वरलालापरिस्रवाः । सर्वशूलारुचिच्छर्दिश्वयथुस्फोटकादयः ॥३५॥ क्रुद्धा इव परं तीव्राः सर्वे रोगास्तदाऽमवन् । यैरत्र विषये प्राणी नैकोऽप्यस्ति न पातितः ॥३६॥ केवलो द्रोणमेघाहः सामात्यपशुबान्धवः । नृपो देव इवारोगः श्रुतो निजपुरे मया ॥३॥ आवाय समयाऽवाचि माम त्वं नीरुजो यथा । कालक्षेपविनिर्मुक्तं तथा मां कत मर्हसि ॥३८॥ ततः सौरभसंरुद्धदुरदिग्वलयं जलम् । तेन सिक्तोऽहमानाय्य प्राप्तश्चोल्लाघतां पराम् ॥३९॥ मेरे साथ योद्धाओंको भय उत्पन्न करनेवाला-कठिन युद्ध हुआ ॥२६॥ तत्पश्चात् उसने मुझे चण्डरवा नामक शक्तिसे मारा जिससे में रात्रिके समय आकाशसे अयोध्याके महेन्द्रोदय नामक सघन वनमें गिरा ॥२७॥ आकाशसे पड़ते हए ताराबिम्बके समान मझे देख अयोध्याके राजा भरत तक करते हुए मेरे समीप आये ।।२८|| शक्ति लगनेसे जिसका वक्षःस्थल शल्ययुक्त था ऐसे मुझको देख राजा भरत दयासे दुखी हो उठे । तदनन्तर जीवन दान देनेवाले उन सत्पुरुषने मुझे चन्दनके जलसे सींचा ॥२९।। उसी समय शक्ति कहों भाग गयी और मेरा रूप पहलेके समान हो गया तथा उस सुगन्धित जलसे मुझे अत्यधिक सुख उत्पन्न हुआ ॥३०॥ पुरुषोंमें इन्द्र के समान श्रेष्ठ उन महात्मा भरतने मुझे यह दूसरा जन्म दिया है जिसका कि फल आपका दर्शन करना है। भावार्थ-शक्ति निकालकर उन्होंने मुझे जीवित किया उसीके फलस्वरूप आपके दर्शन पा सका है ॥३१॥ इसी बीचमे परम हर्षको प्राप्त हुए, सुन्दर रूपके धारक रामने उससे पूछ भद्र ! उस गन्धोदककी उत्पत्ति भी जानते हो? ॥३२।। इसके उत्तर में उसने कहा कि हे देव! जानता हूँ सुनिए, मैं आपके लिए बताता हूँ। मैंने राजा भरतसे पूछा था तब उन्होंने इस प्रकार कहा था ॥३३॥ कि नगर-ग्रामादिसे सहित यह देश एक बार जिनका प्रतिकार नहीं किया जा सकता था ऐसे अनेक महारोगोंसे आक्रान्त हो गया ॥३४॥ उरोघात-जिसमें वक्षःस्थल-पसली आदिमें दर्द होने लगता है, महादाहज्वर-जिसमें महादाह उत्पन्न होता है, लालापरिस्राव-जिसमें मुंहसे लार बहने लगती है, सर्व-शूल-जिसमें सर्वांगमें पीड़ा होती है, अरुचि-जिसमें भोजनादिकी रुचि नष्ट हो जाती है, छर्दि-जिसमें वमन होने लगते हैं, श्वयथु-जिसमें शरीरपर सूजन आ जाता है, और स्फोटक-जिसमें शरीरपर फोड़े निकल आते हैं, इत्यादि समस्त रोग उस समय मानो परम क्रुद्ध हो रहे थे। इस देश में ऐसा एक भी प्राणी नहीं बचा था जो कि इन रोगों द्वारा गिराया न गया हो ॥३५-३६॥ केवल द्रोणमेघ नामका राजा मन्त्रियों, पशुओं तथा बन्धु आदि परिवारके साथ अपने नगरमें देवके समान नीरोग बचा था ऐसा मेरे सुननेमें आया ॥३७।। मैंने उसे बुलाकर कहा कि हे माम ! जिस प्रकार तुम नीरोग हो उसी प्रकार मुझे भी अविलम्ब नीरोग करनेके योग्य हो ॥३८|| तदनन्तर उसने बुलाकर अपनी सुगन्धिसे दूर-दूर तकके दिङमण्डलको व्याप्त करनेवाला जल मुझपर सींचा और मुझे परम नीरोगता प्राप्त करा १. तार्की म. । २. कापि म.। ३. त्वदीक्षणे म. । ४. प्रयच्छ म. । २-५१ , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001823
Book TitlePadmapuran Part 2
Original Sutra AuthorDravishenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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