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150 Seeing Lakshmana, who was adorned with a beautiful form, with her slow eyes, the girl, filled with shyness, became overwhelmed with wonder. 45 The newly-wed, trembling slightly, thought to herself, 46 "Is this happiness bestowed upon me by the forest goddesses, or is it the great compassion of the one who has come with a message?" 47 "This lord, who has saved my life, has arrived here by divine destiny. 48 Thinking thus, and slightly perspiring, Vanamala, embracing Lakshmana, became radiant with joy. 49 Then, on a bed of soft, fragrant flowers, Rama awoke and looked for Lakshmana. Not seeing him, he got up and asked Sita, "Devi, where is Lakshmana?" 50-51 "He was sleeping near us, on a bed of flowers and leaves, at dusk, but now he is not to be seen." 52 Sita replied, "O Lord, call out to him." Then, in a loud voice, Rama said, "O Lakshmana, where have you gone? Come, come, O son, O brother, where are you? Speak quickly!" 53-54 Hearing Rama's voice, Lakshmana, in a flustered tone, replied, "Dev, I am coming." Saying this, he came to his elder brother, accompanied by Vanamala. 55 At that time, it was the middle of the night, the moon had risen, and a fragrant, cool breeze was blowing from the heart of the kumuda flowers. 56 Then, Vanamala, with her lotus-like hands folded in salutation, her whole body covered in clothes, her face blushing with shyness, knowing all her duties, and filled with utmost humility, bowed down to the feet of Rama and Sita. 57-58 Seeing Lakshmana with his wife, Sita said, "O Kumar, you have made friends with the moon!" 59 Rama asked Sita, "Devi, how do you know?" Sita replied, "Dev, I know by his actions. Listen, his behavior is similar to..." 60 "Just as the foam disappears from the lotus, in the same way, he has snatched away the garland from his hand." 44
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________________ १५० पपुराणे ततोऽसौ अपया युक्ता दृष्ट्वा मन्थरचक्षुषा । लक्ष्मणं नेत्रचौरेण रूपेण परिलक्षितम् ॥४५॥ परं विस्मयमापना चिन्तामेवमुपागता । ईषद्वेपथुना युक्ता नवसंगमजन्मना ॥४६॥ किमयं वनदेवीभिः प्रसादो जनितो मम । कारुण्यमुपयातामिः संदेशवचनैः परम् ॥४७॥ सोऽयं यथाश्रतो नाथः संप्राप्तो दैवयोगतः । मवेद्येन मम प्राणाः प्रयान्तो विनिवारिताः ॥४८॥ इति संचिन्तयन्ती सा किंचित्प्रस्वेदधारिणी । लक्ष्मीधरसमाश्लेषं लब्ध्वात्यन्तमराजत ।।४९।। ततो मृदुमहामोदकुसुमोदारसंस्तरे । प्रबुद्धो राघवश्चक्षुर्लक्ष्मणार्थमुदीरयन् ॥५०॥ अपश्यंश्च समुत्थाय पप्रच्छ जनकात्मजाम् । प्रदेश लक्ष्मणो देवि नैतस्मिन् दृश्यते कुतः ॥५१॥ प्रदोषे संस्तरं कृत्वा सोऽस्माकं पुष्पपल्लवैः । आसीदनतिदूरस्थः कुमारो ह्यत्र नेक्ष्यते ॥५२॥ नाथ वाह्वायतां तावदिति तस्यां कृतध्वनौ । क्रमादत्युच्चया वाचा वचो व्याहृतवानिति ॥५३।। एयागच्छ व यातोऽसि मद्र लक्ष्मण लक्ष्मण । प्रयच्छ वचनं तात त्वरितं बालकानुज ॥५४॥ अयमायामि देवेति दस्वास्मै संभ्रमी वचः । वनमालासमेतोऽसौ ज्येष्ठस्यान्तिकमागतः ॥५५।। अर्धरात्रे तदा स्पष्टे निशानाथः समुथयो । ववौ कुमुदगर्माप्तेर्वायुः सामोदशीतलः ॥५६।। ततः पल्लवकान्ताभ्यां हस्ताभ्यां रचिताञ्जलिः । अंशुकावृतसर्वाङ्गा अपाविनमितानना ॥५७॥ ज्ञातनिश्शेषकर्तव्या बिभ्राणा विनयं परम् । बालावन्दत रामस्य सीतायाश्च क्रमद्वयम् ॥५८॥ सद्वितीयं ततो दृष्टा सीता लक्ष्मणमब्रवीत् । कुमार सह चन्द्रेण समवायस्त्वया कृतः ॥५९।। कथं जानासि देवीति पोनोका जगाद सा । चेष्टया देव जानामि शृणु तुल्यप्रवृत्तया ॥६॥ कमलसे फेनको दूर करता है उसी प्रकार उसके हाथसे फांसी छीन ली ॥४४॥ तदनन्तर नेत्रोंको चुरानेवाले रूपसे सुशोभित लक्ष्मणको मन्थर दृष्टिसे देखकर वह कन्या लज्जासे युक्त हो गयी।।४५।। नवसमागमके कारण कुछ-कुछ काँपती हुई वनमाला परम आश्चर्यको प्राप्त हो इस प्रकार विचार करने लगी ॥४६॥ कि क्या मेरे सन्देश वचनोंसे परम दयालताको प्राप्त हई वनदेवि ही मुझपर यह प्रसन्नता की है ? ॥४७॥ जिन्होंने मेरे निकलते हुए प्राण रोके हैं ऐसे ये प्राणनाथ देवयोगसे ही यहाँ आ पहुँचे हैं ॥४८॥ इस प्रकार विचार करती और कुछ-कुछ पसीनाको धारण करती हुई वनमाला लक्ष्मणका आलिंगन पाकर अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥४९॥ तदनन्तर इधर कोमल तथा महासुगन्धित फूलोंकी उत्कृष्ट शय्यापर पड़े रामको जब निद्रा हटी तो उन्होंने लक्ष्मणको ओर दृष्टि डाली । लक्ष्मणको न देखकर वे उठे और सीतासे पूछने लगे कि देवि! यहां लक्ष्मण क्यों नहीं दिखाई देता ? ||५०-५१|| सायंकालके समय तो वह फूल तथा पत्तोंसे हमारी शय्या कर यहीं पासमें सोया था पर अब यहाँ दिखाई नहीं दे रहा है ।।५२।। सीताने उत्तर दिया कि हे नाथ ! आवाज देकर बुलाइए। तब रामने यथाक्रमसे उच्चवाणीमें इस प्रकार शब्द कहे कि हे लक्ष्मण ! तू कहाँ चला गया, आओ-आओ, हे तात ! हे बालक ! हे अनुज ! कहाँ हो, शीघ्र आवाज देओ ॥५३-५४॥ रामकी आवाज सुन लक्ष्मणने हड़बड़ाकर उत्तर दिया कि देव ! यह आता हूँ। इस प्रकार उत्तर देकर वे वनमालाके साथ अग्रजके समीप आ पहुँचे ॥५५॥ उस समय स्पष्ट ही आधी रात थी, चन्द्रमाका उदय हो चका था और कूमदोंके गर्भसे मिलकर सुगन्धित तथा शीतल वायु बह रही थी ॥५६।। तदनन्तर जिसने कमलके समान सुन्दर हाथोंसे अंजलि बाँध रखी थी, वस्त्रसे जिसका सवं शरीर आवृत था, लज्जासे जिसका मुख नम्रीभूत हो रहा था, जो समस्त कर्तव्यको जानती थी तथा परम विनयको धारण कर रही थी ऐसी वनमालाने आकर राम तथा सीताके चरणयुगलको नमस्कार किया ।।५७-५८।। तदनन्तर लक्ष्मणको स्त्री सहित देख सीताने कहा कि हे कुमार ! तुमने तो चन्द्रमाके साथ मित्रता कर ली ॥५९|| रामने सोतासे कहा कि हे देवि ! तुम किस प्रकार जानती हो ? इसके उत्तर में सीताने कहा कि हे देव ! Jain Education International For Private & Personal Use Only .www.jainelibrary.org
SR No.001823
Book TitlePadmapuran Part 2
Original Sutra AuthorDravishenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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