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________________ महावीर वाणी भाग : 2 और बुद्ध इस मामले में अनूठे हैं। दुनिया में और जो साधन पद्धतियां हैं, वे सब ध्यान को अलग काम बनाती हैं, वे कहती हैं, रास्ते पर चलो तो राम को स्मरण करते रहो। वे कहती हैं कि बैठे हो खाली, तो माला जपते रहो। कोई भी पल ऐसा न जाये जो प्रभु स्मरण से खाली हो। इसका मतलब हुआ कि जिन्दगी का काम एक तरफ चलता रहेगा और भीतर एक नये काम की धारा शुरू करनी पड़ेगी । महावीर और बुद्ध इस मामले में बहुत भिन्न हैं। वे कहते हैं कि यह भेद करने से तनाव पैदा होगा, अड़चन होगी। मेरे पास एक सैनिक को लाया गया था। सैनिक था, सैनिक के ढंग का उसका अनुशासन था मन का । फिर उसने किसी से मंत्र ले लिया । तो जैसा वह अपनी सेना में आज्ञा मानता था, वैसे ही उसने अपने गुरु की भी आज्ञा मानी । और मंत्र को चौबीस घण्टे रटने लगा । अभ्यास हो गया। दो तीन महीने में मंत्र अभ्यस्त हो गया। तब बड़ी अड़चन शुरू हुई, उसकी नींद खो गयी। क्योंकि वह मंत्र तो जपता ही रहता । धीरे-धीरे नींद मुश्किल हो गयी, क्योंकि मंत्र चले तो नींद कैसे चले। फिर धीरे-धीरे रास्ते पर चलते वक्त उसे भ्रम पैदा होने लगे। कार का हार्न बज रहा है, उसे सुनायी न पड़े, क्योंकि वहां भीतर मंत्र चल रहा है। वह इतना एकाग्र होकर मंत्र सुनने लगा कि कार का हार्न कैसे सुनाई पड़े। उसकी मिलिट्री में उसका केप्टिन आज्ञा दे रहा है, बायें घूम जाओ, वह खड़ा ही रहे। भीतर तो वह कुछ और कर रहा है। उसे मेरे पास लाये। मैंने पूछा कि तुम क्या कर रहे हो? इसमें तुम पागल हो जाओगे। उसने कहा, अब तो कोई उपाय नहीं है। अब तो मैं न भी जपूं राम-राम, भीतर का मंत्र न भी जपूं तो भी चलता रहता है। मैं अगर उसे छोड़ दूं, तो मेरा मामला नहीं अब, उसने मुझे पकड़ लिया है। मैं खाली भी बैठ जाऊं तो कोई फर्क नहीं पड़ता है, मंत्र चलता है। इस तरह की कोई भी साधना पद्धति जीवन में उपद्रव पैदा कर सकती है। क्योंकि जीवन की एक धारा है, और एक नयी धारा आप पैदा कर लेते हैं । जीवन ही काफी बोझिल है। और एक नयी धारा तनाव पैदा करेगी। और अगर इन दोनों धाराओं में विरोध है, तो आप अड़चन में पड़ जायेंगे। महावीर और बुद्ध अलग धारा पैदा करने के पक्ष में नहीं हैं। वे कहते हैं, जीवन की जो धारा है, इसी धारा पर ध्यान को लगाओ। इसमें भेद मत पैदा करो, द्वैत मत पैदा करो। ध्यान ही चाहिए न, तो राम-राम पर ध्यान रखते हो, क्या सवाल हुआ? सांस चलती है, इस पर ध्यान रख लो | ध्यान ही बढ़ाना है तो एक मंत्र पर ध्यान बढ़ाते हो, पैर चल रहे हैं, यह भी मंत्र है। इसी पर ध्यान को कर लो । भीतर कुछ गुनगुनाओगे उस पर ध्यान करना है, बाजार पूरा गुनगुना रहा है, चारों तरफ शोरगुल हो रहा है, इसी पर ध्यान कर लो। ध्यान को अलग क्रिया मत बनाओ, विपरीत क्रिया मत बनाओ। जो चल रहा है, मौजूद है उसको ही ध्यान का आब्जेक्ट, उसको ही ध्यान का विषय बना लो । और तब इस अर्थों में, महावीर की पद्धति जीवन विरोधी नहीं है, और जीवन में कोई भी अड़चन खड़ी नहीं करती। महावीर ने सीधी सी बात कही है, चलो, तो होशपूर्वक । बैठो, तो होशपूर्वक । उठो, तो होशपूर्वक । भोजन करो, तो होशपूर्वक । जो भी तुम कर रहे हो जीवन की क्षुद्रतम क्रिया, उसको भी होशपूर्वक किये चले जाओ। क्रिया में बाधा न पड़ेगी, क्रिया में कुशलता बढ़ेगी और होश भी साथ-साथ विकसित होता चला जायेगा। एक दिन तुम पाओगे, सारा जीवन होश का एक द्वीप-स्तम्भ बन गया, तुम्हारे भीतर सब होशपूर्ण हो गया है। एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि कल आपने कहा, प्रत्येक व्यक्ति की परम स्वतंत्रता का समादर करना ही अहिंसा है। दूसरे को बदलने का, अनुशासित करने का, उसे भिन्न करने का प्रयास हिंसा है। तो फिर गुरजिएफ और झेन गुरुओं द्वारा अपने शिष्यों के प्रति इतना सख्त अनुशासन और व्यवहार और उन्हें बदलने के तथा नया बनाने के भारी प्रयत्न के संबंध में क्या कहिएगा? क्या उसमें भी हिंसा Jain Education International 82 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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