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ये चार शत्रु
ठीक, प्रमाद को तोड़ने में भी ऐसा ही होगा। दो कदम आप होश में चलेंगे, फिर अचानक चार हाथ-पैर से आप बेहोशी में चलने लगेंगे। जैसे ही होश आ जाये. फिर खडे हो जायें। चिंता मत लें इसकी कि बीच में होश क्यों खो गया । इस चिंता में समय और शक्ति खराब न करें। तत्काल होश को फिर से साधने लगें । अगर चौबीस घंटे में चौबीस क्षण भी होश सध जाये, तो आप महावीर हो जायेंगे। काफी है, इतना भी बहुत है । इससे ज्यादा की आशा मत रखें, अपेक्षा भी मत करें । चौबीस घंटे में अगर चौबीस क्षणों को भी होश आ जाये तो बहुत है। धीरे-धीरे क्षमता बढ़ती जायेगी। और वह जो बच्चा आज सोच रहा है कि अपने वश के बाहर है दो पैर से चलना, एक दिन वह दो पैर से चलेगा और कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ेगा, कोई प्रयास नहीं रह जायेगा।
तो यह ध्यान रख लें, ध्यान को काम नहीं बना लेना है। नहीं तो बहुत से धार्मिक लोग ध्यान को ऐसा काम बना लेते हैं कि उनके सिर पर पत्थर रखा है। उसकी वजह से उनका क्रोध बढ़ जाता है। क्योंकि फिर जिससे भी उन्हें बाधा पड़ जाती है, उस पर वे क्रोधित हो जाते हैं । जो काम में उनका ध्यान नहीं टिकता, वह उस काम को छोड़कर भागना चाहते हैं। जिनके कारण असुविधा होती है, उनका त्याग करना चाहते हैं। यह सब क्रोध है। इस क्रोध से कोई हल नहीं होगा।
साधक को चाहिए धैर्य, और तब दकान भी जंगल जैसी सहयोगी हो जाती है। साधक को चाहिए अनंत प्रतीक्षा, और तब घर भी किसी भी आश्रम से महत्वपूर्ण हो जाता है । निर्भर करता है आपके भीतर के धैर्य, प्रतीक्षा और सतत, सहज प्रयास पर । प्रयास तो करना ही होगा, लेकिन उस प्रयास को एक बोझिलता जो बनायेगा, वह हार जायेगा। __ जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह प्रतीक्षा से, सहजता से, बिना बोझ बनाये प्रयास से उपलब्ध होता है। सच तो यह है कि हम कोई
भी चीज आज भी कर सकते हैं. लेकिन अधैर्य ही हमारा बाधा बन जाता है। उससे उदासी आती है. निराशा 3 है, और आदमी सोचता है, नहीं, यह अपने से न हो सकेगा। यह जो बार-बार हताशा पकड़ती है, यह अहंकार का लक्षण है।
आप अपने से बहत अपेक्षा कर लेते हैं पहले, फिर उतनी पूरी नहीं होती। वह अपेक्षा आपका अहंकार है। एक क्षण भी होश सधता है तो बहुत है। एक क्षण जो सधता है, कल दो क्षण भी सध जायेगा। और ध्यान रहे, एक क्षण से ज्यादा तो आदमी के हाथ में कभी होता नहीं। दो क्षण तो किसी को इकट्ठे मिलते नहीं। इसलिए दो क्षण की चिन्ता भी क्या? जब भी आप के हाथ में समय आता है, एक ही क्षण आता है। अगर आप एक क्षण में होश साध सकते हैं, तो समस्त जीवन में होश सध सकता है। इसका बीज आपके पास है। एक ही क्षण तो मिलता है हमेशा, और एक क्षण का होश साधने की क्षमता आप में है। ___ आदमी एक कदम चलता है एक बार में, कोई मीलों की छलांग नहीं लगाता। और एक-एक कदम चलकर आदमी हजारों मील चल लेता है । जो आदमी अपने पैर को देखेगा और देखेगा, एक कदम चलता हूं, एक फीट पूरा नहीं हो पाता; हजार मील कहां पार होने वाले हैं! यहीं बैठ जायेगा । लेकिन जो आदमी यह देखता है कि अगर एक कदम चल लेता हूं, तो एक कदम हजार मील में कम हुआ।
और अगर जरा-सा भी कम होता है तो एक दिन सागर को भी चुकाया जा सकता है। फिर कुछ भी अड़चन नहीं है। इतना चल लेता हूं तो एक हजार मील भी चल लूंगा। दस हजार मील भी चल लूंगा । लाओत्से ने कहा है, पहले कदम को उठाने में जो समर्थ हो गया, अंतिम बहुत दूर नहीं है। कितना ही दूर हो।
जिसने पहला उठा लिया है, वह अंतिम भी उठा लेगा। पहले में ही अड़चन है, अंतिम में अड़चन नहीं है। जो पहले पर ही थक कर बैठ गया, निश्चित ही वह अंतिम नहीं उठा पाता है। पहला कदम आधी यात्रा है, चाहे यात्रा कितनी ही बड़ी क्यों न हो। जिसने पहले कदम के रहस्य को समझ लिया, वह चलने की तरकीब समझ गया, विज्ञान समझ गया। एक-एक कदम उठाते जाना है, एक-एक पल को प्रमाद से मुक्त करते जाना है। जो भी करते हों, होशपूर्वक करें । होश अलग काम नहीं है, उस काम को ही ध्यान बना लें । महावीर
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