SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीर वाणी भाग 2 नीचे नहीं। यह अहिंसा का अर्थ है। अहिंसा का अर्थ है कि मैं तुमसे ऐसा व्यवहार करूंगा कि तुम परमात्मा हो, इससे कम नहीं | और मैं अपने को तुम्हारे ऊपर थोपूंगा नहीं। और अगर तुम मेरे विपरीत जाते हो, तो तुम्हें नरक में नहीं डाल दूंगा। और तुम अनुकूल आते हो तो तुम्हारे लिए स्वर्ग का आयोजन नहीं करूंगा। तुम अनुकूल आते हो या प्रतिकूल, यह तुम्हारा अपना निर्णय है, और मेरा कोई भ इस निर्णय पर आरोपित नहीं होगा । तो अहिंसा साधते वक्त अप्रमाद अपने आप सध जायेगा। तो चाहे कोई अहिंसा से शुरू करे, अलोभ से शुरू करे, अक्रोध से शुरू करे, वह अप्रमाद पर उसे जाना ही होगा। वह अण्डे से शुरू करे, मुर्गी तक उसे जाना ही होगा। और चाहे कोई अप्रमाद से शुरू करे . वह अप्रमाद से शुरू करेगा, हिंसा गिरनी शुरू हो जायेगी। क्योंकि अप्रमाद में कैसे, होश में कैसे, हिंसा टिक सकती है ? हिंसा गिरेगी, परिग्रह गिरेगा, पाप हटेगा, पुण्य अपने आप प्रवेश करने लगेगा। तो जब मुझसे कोई पूछता है कि इसमें महावीर की विधि क्या? वह बाहर पर जोर देते हैं कि भीतर पर? महावीर इस बात पर जोर देते हैं कि तुम कहीं से भी शुरू करो, दोनों सदा मौजूद रहेंगे। और अगर एक मौजूद रहता है तो विधि में भूल है और खतरा है । अगर कोई व्यक्ति कहता है, मैं तो भीतर से ही... मैं बाहर से ध्यान नहीं दूंगा, वह अपने को धोखा दे सकता है। क्योंकि वह बाहर हिंसा कर सकता है और कहे कि मैं तो भीतर से अहिंसक हूं। ऐसे बहुत लोग हैं जो भीतर से साधु और बाहर से असाधु हैं। और वे कहते चले जायेंगे, यह तो मामला बाहर का है। बाहर में क्या रखा हुआ है, बाहर तो माया है। एक बौद्ध भिक्षु कहता था कि सारा संसार माया है। बाहर क्या रखा है? है ही नहीं कुछ, सपना है। इसलिए वेश्या के घर में भी ठहर जायेगा, शराब भी पी लेगा। क्योंकि अगर सपना ही है तो पानी और शराब में फर्क कैसे हो सकता है? अगर शराब में कुछ वास्तविकता है, तो ही फर्क हो सकता है। नहीं तो पानी में और शराब में क्या फर्क है, अगर सब माया है? तो आपको मैं मारूं कि जिलाऊं, कि जहर दूं, कि दवा दूं क्या फर्क है? फर्क तो सच्चाइयों में होता है। दो झूठ बराबर झूठ होते हैं। और अगर आप कहते उसका मतलब है कि वह थोड़ा सच हो गया । एक झूठ थोड़ा कम झूठ है, अगर सारा जगत माया है तो ठीक है। तो वह जो मन में आये करता था। एक सम्राट ने उससे अपने द्वार पर बुलाया। विवाद में जीतना उस आदमी से मुश्किल था। असल में विवाद की जिसे कुशलता आती हो, उससे जीतना किसी भी हालत में मुश्किल है। क्योंकि तर्क वेश्या की तरह है। कोई भी उसका उपयोग कर ले सकता है। और यह तर्क गहन है कि सारा जगत माया है। सिद्ध भी कैसे करो कि नहीं है। पर सम्राट था बुद्ध, इसलिए कभी-कभी बुद्धू तार्किकों को बड़ी मुश्किल में डाल देते हैं। तो उसने कहा, अच्छा! सब माया है? तो उसने कहा, अपना जो पागल हाथी है, उसे ले आओ। वह भिक्षु घबराया कि यह झंझट होगी। तर्क का मामला था तो वह सिद्ध कर लेता था । तर्क के मामले में आप जीत नहीं सकते, जो आदमी कहता है कि सब असत्य है, उसको कैसे सिद्ध करियेगा कि सत्य है ? क्या उपाय है? कोई उपाय नहीं है। उस सम्राट ने कहा कि बैठें, अभी पता चलता है। वह पागल हाथी बुलाकर उसने महल के आंगन में छोड़ दिया और भिक्षु को खींचने लगे सिपाही, तो वह चिल्लाने लगा। कि यह क्या कर रहे हैं! विचार से विचार करिए । पर सम्राट ने कहा कि हाथी पागल है। हमारी समझ में वास्तविकता है यह, तुम्हारी समझ में तो सब माया है। माया के हाथी से ऐसा भय क्या? उस भिक्षु ने कहा, 'क्या मेरी जान लोगे?' Jain Education International 66 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy