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संन्यास प्रारंभ है, सिद्धि अंत
का मतलब इतना ही है केवल कि वहां हमने ही डाला था मूल्य और हमने ही निकाला था। जो हम डालते हैं, वही हम निकालते हैं । हम पहले प्रोजेक्ट करते हैं मूल्य, और फिर हम मूल्य से आंदोलित होते हैं। बड़ा खेल है !
महावीर कहते हैं, सिद्ध वह है, जो इस खेल के बाहर हो गया।
'जब आत्मा सब कर्मों का क्षय कर - सर्वथा मल-रहित होकर सिद्धि को पा लेती है, तब लोक के मस्तक पर, ऊपर के अग्रभाग पर स्थित होकर सदा काल के लिए सिद्ध हो जाती है।'
महावीर कहते हैं : लोक और आलोक, ये द्वन्द्व हैं। जैसा मैंने कहा यमुना और गंगा, ये दो दृश्य हैं और सरस्वती अदृश्य है। लोक और अलोक, मैटर और एंटी मैटर - विज्ञान की भाषा में कहें- ये दो विरोध हैं। इन दोनों विरोधों के बीच लोक के अग्रभाग पर और अलोक के प्रथम भाग पर सिद्ध चेतना थिर हो जाती है। पदार्थ और अ-पदार्थ, लोक और अलोक – इन दोनों के द्वन्द्व के मध्य में चेतना थिर हो जाती है।
इस अवस्था का फिर कोई अंत नहीं है। यह अनंत अवस्था है। यह टाइमलेसनेस है। यह शाश्वतता है। इस क्षण से फिर कोई दूसरा क्षण नहीं है। यह क्षण अनंत है ।
इससे बड़े विचार पैदा हुए, बड़ी चर्चा हजारों साल तक चली है। क्योंकि पश्चिम में वे पूछते हैं कि जब भी कोई चीज शुरू होती है तो उसका अंत होता है। अगर यह सिद्धावस्था शुरू होती है तो यह अंत कब होगी?
महावीर कहते हैं, इसका कोई अंत नहीं होता, यह सिर्फ शुरू होती है। सिद्धावस्था की सिर्फ बिगनिंग है, अंत नहीं है। यह बड़े मजे की बात है । और महावीर की बात समझने जैसी है। महावीर कहते हैं: संसार का अंत है, प्रारंभ नहीं है; सिद्धावस्था का प्रारंभ है, अंत नहीं है। और दोनों मिलकर एक वर्तुल बन जाते हैं।
महावीर कहते हैं, संसार का कोई प्रारंभ नहीं है, यह सदा से है। इसलिए महावीर स्रष्टा को नहीं मानते, या कभी क्रियेशन हुआ, इसको नहीं मानते; सृष्टि की गयी, इसको नहीं मानते । वे कहते हैं, संसार सदा से है। इसका कोई प्रारंभ नहीं है। द वर्ल्ड इज बिगनिंगलेस । सिद्धावस्था का प्रारंभ है। सिद्धावस्था के प्रारंभ का अर्थ हुआ कि संसार का अंत । जैसे ही कोई सिद्ध हुआ, उसके लिए संसार का अंत हो गया, संसार शून्य हो गया ।
तो महावीर कहते हैं: संसार का प्रारंभ नहीं है, अंत है; सिद्धावस्था का प्रारंभ है, अंत नहीं है। और दोनों मिलकर वर्तुल को पूरा कर देते हैं ।
हम एक बड़ी लकीर को खींचें। इस लकीर को हम दो हिस्सों में बांट दें। पहले हिस्से के अग्रभाग पर सिद्धावस्था को रख दें; उसका कोई अंत नहीं है, प्रारंभ है। सिद्धावस्था एक दिन प्रारंभ होती है, लेकिन उसका अंत कभी नहीं होता। यह आधी बात हुई, आधा संसार है। उसका प्रारंभ नहीं है, उसका अंत है। दोनों को जोड़ दें तो एक वर्तुल बन जायेगा ।
महावीर कहते हैं; ये दोनों घटनाएं एक ही विस्तार के दो हिस्से हैं। सिद्ध पहुंच गया वहां, जहां से फिर कोई रूपांतरण नहीं—न गिरना, न उठना; न आगे न पीछे।
अनेक दार्शनिकों ने सवाल उठाया है कि जब उसका कोई अंत नहीं होगा - इतनी लंबी, एन्डलेस, अंतरहित स्थिति होगी, तो हम उससे ऊब नहीं जायेंगे ? उससे घबड़ाहट पैदा नहीं हो जायेगी? उससे आदमी भागना नहीं चाहेगा ?
महावीर कहते हैं कि जब भी हम सोचते हैं, अंत-रहित, तो हमारा मतलब होता है, बहुत लंबी है, लेकिन कहीं अंत होगा । मह कहते हैं, जब मैं कहता हूं, अंतरहित, तो उसका मतलब ही यह होता है कि जहां लंबाई का सवाल नहीं है, शाश्वतता का सवाल है,
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