SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एक ही नियम : होश उसके साथ पत्थर की तरह व्यवहार नहीं कर सकते। तो जो मांगता है, उसे मिलता नहीं। तब एक दृष्टचक्र पैदा होता है। जितना नहीं मिलता, उतना ज्यादा आदमी मांगता है क्योंकि वह कहता है कि नहीं मांगूगा तो मिलेगा कैसे? जितना ज्यादा मांगता है, उतना नहीं मिलता। और ज्यादा मांगता है, और भी नहीं मिलता। और जब पाता है कि बिलकुल नहीं मिल रहा है तो वह सिर्फ मांगनेवाला एक भिखारी हो जाता है, जो मांगता ही चला जाता है। वह मांगता चला जाता है, मिलना उतना ही मुश्किल होता चला जाता है। वह अपने हाथों अपने को तोड़ रहा है। जो नहीं मांगता, उसे बहुत मिलता है। तब एक शुभ-चक्र पैदा हो जाता है। जैसे ही यह समझ में आ जाता है कि नहीं मांगता हूं तो मिलता है, वैसे ही मांग समाप्त होती चली जाती है। जितनी मांग समाप्त होती है उतना प्रेम मिलता चला जाता है; जिस दिन कोई मांग नहीं रह जाती, उस दिन सारे जगत का प्रेम बरस पड़ता है। जो मांगता है, मांगने के कारण ही वंचित रह जाता है। जो नहीं मांगता, नहीं मांगने के कारण ही मालिक हो जाता है। मांगनेवाला मालिक हो भी नहीं सकता, केवल देनेवाला मालिक हो सकता है। इसलिए मैंने पीछे आपसे कहा, जो आप देते हैं, उसी के आप मालिक हैं। जो आप मांगते हैं, उसके आप मालिक नहीं हैं। मांगने से जो मिल जाये, उसके भी आप मालिक नहीं हैं। जो देने से चला जाये उसी के आप मालिक हैं। ___ ऐसे प्रेम को हम कहेंगे, बंधनमुक्त, जो सिर्फ दान है, अपेक्षारहित, बेशर्त, अनकंडीशनल। धन्यवाद की भी अपेक्षा नहीं होनी चाहिए। लेकिन हम कहेंगे, यह तो बड़ा कठिन है। अगर हम धन्यवाद की भी अपेक्षा न करें, कुछ भी अपेक्षा न करें, तो हम प्रेम करेंगे ही क्यों? हम सबको यह खयाल है कि हम प्रेम करते ही इसलिए हैं कि कुछ पाना है। तब आपको पता ही नहीं है । प्रेम का सारा आनंद करने में ही है। उसके बाहर कुछ भी नहीं है। करने में ही उसका सारा आनंद है, उसके पार कुछ भी नहीं है। विसेंट वानगाग कोई तीन सौ चित्र छोड़ गया है । उसका एक भी चित्र बिका नहीं, जब वह जिंदा था। कोई पांच दस रुपये में भी लेने को राजी नहीं था । आज उसके एक-एक चित्र की कीमत पांच लाख, दस लाख रुपया है । वानगाग का भाई था, थियो उसका नाम था। वही भाई उसको कुछ पैसे देकर उसकी जिंदगी चलाता था। उसने कई बार विन्सेंट वानगाग को कहा कि बंद करो यह, इससे कुछ मिलता तो है ही नहीं। तुम चित्र बनाये चले जाते हो, मिलता तो कुछ भी नहीं। भूखे मरते हो। क्योंकि उसे जितना थियो देता था उससे सिर्फ उसकी रोटी का काम चल सकता था सात दिन । तो वह चार दिन खाना खाता था, तीन दिन उपवास करता था। ताकि तीन दिन में जो रोटी के पैसे बचें उनसे रंग और कैनवास खरीदा जा सके। उनसे वह चित्र बनाता था। इस तरह बहुत कम लोगों ने चित्र बनाये हैं, इसलिए जैसे चित्र वानगाग ने बनाये हैं, वैसे चित्र किसी ने भी नहीं बनाये। __ लेकिन वानगाग हंसता और कहता कि मिलना! जब मैं चित्र बनाता हूं तब मिल जाता है । जब बना रहा होता हूं, तो सब मिल जाता है। चित्र बनने के बाद कुछ मिलेगा, यह बात ही बेहूदी है । इसका बनाने से कोई संबंध ही नहीं है। जब मैं बनाता हूं, तभी मेरे प्राण उस बनाने में खिल जाते हैं। जब वहां रंग खिलने लगते हैं, तब मेरे भीतर भी रंग खिलने लगते हैं। जब वहां रूप निर्मित होने लगता है, तब मेरे भीतर भी रूप निर्मित होने लगता है। जब वहां सौंदर्य प्रगट हो जाता है, तो मेरे भीतर भी सौंदर्य प्रगट हो जाता है। वह चित्र में हुआ सूर्योदय, मेरे भीतर हो रहा भी सूर्योदय है, साथ ही साथ । उसके पार और कुछ मिलने का सवाल ही नहीं है, यह बात ही व्यवसायी की है। व्यवसायी सोचेगा चित्र बनाकर, बिकेगा या नहीं। थियो ने एक बार सोचा कि बेचारा वानगाग! जिंदगी भर बनाता हो गया, क्योंकि थियो सोच ही नहीं सकता, वह एक दुकानदार है। 43 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy