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महावीर-वाणी भाग : 2 एक और प्रेम भी है जो व्यवसाय नहीं है, सौदा नहीं है। उस प्रेम में देना ही महत्वपूर्ण है, लेने का सवाल ही नहीं उठता। देने में ही बात पूरी हो जाती है, देना ही साध्य है। तब वैसा व्यक्ति प्रेम मिले, इसकी भाषा में नहीं सोचता, प्रेम दिया, इतना काफी है। मैं प्रेम दे सका, इतना काफी है। और जिसने मेरा प्रेम लिया उसका अनुग्रह है, क्योंकि लेने से भी इनकार किया जा सकता है।
फर्क को समझ लें। __ मैं अगर आपको प्रेम दूं और मेरी नजर लेने पर हो तो बंधन निर्मित होगा। और अगर मैं प्रेम दं, और मेरी नजर देने पर ही हो तो प्रेम मुक्ति बन जायेगा। और जब प्रेम मुक्ति होता है, तभी उसमें सुवास होती है। क्योंकि जब आगे कुछ मांग नहीं है तो पीड़ा का कोई कारण नहीं रह जाता। और जब प्रेम देना ही होता है, मात्र देना, तो जो ले लेता है उसके अनुग्रह के प्रति, उसकी दया के प्रति, उसने स्वीकार किया, इसके प्रति भी मन गहरे आभार से भर जाता है, अहोभाव से भर जाता है। जो मांगता है, वह सदा कहेगा कि मुझे कुछ मिला नहीं । जो देता है वह कहेगा कि इतने लोगों ने मेरा प्रेम स्वीकार किया, इतना स्वीकार किया, इतना मेरे प्रेम में कुछ था भी नहीं कि कोई स्वीकार करे।
जिसका जोर देने पर है, उसका अनुग्रह भाव बढ़ता जायेगा । जिसका जोर लेने पर है उसका भिक्षा भाव बढ़ता जायेगा । और भिखारी कभी भी धन्यवाद नहीं दे सकता, क्योंकि भिखारी की आकांक्षाएं बहुत हैं और जो मिलता है, वह हमेशा थोड़ा है। सम्राट धन्यवाद दे सकता है, क्योंकि देने की बात है, लेने की कोई बात नहीं है। ऐसा प्रेम बंधन मुक्त हो जाता है। ___ इसमें और एक बात समझ लेनी जरूरी है जो बड़ी मजेदार है और जीवन के जो गहरे पेराडाक्सेज़, जीवन के जो गहरे विरोधाभास हैं, पहेलियां हैं, उनमें से एक है। जो मांगता है उसे मिलता नहीं और जो नहीं मांगता उसे बहुत मिल जाता है। जो देता है पाने के लिए उसके हाथ की पूंजी समाप्त हो जाती है, लौटता कुछ नहीं है । जो देता है पाने के लिए नहीं, दे देने के लिए, बहुत वर्षा हो जाती है उसके ऊपर; बहुत लौट आता है।
उसके कारण हैं।
जब भी हम मांगते हैं, तब दूसरे आदमी को देना मुश्किल हो जाता है। जब भी हम मांगते हैं तो दूसरे आदमी को लगता है कि उससे कुछ छीना जा रहा है। जब भी हम मांगते हैं तो दूसरे आदमी को लगता है, वह परतंत्र हो रहा है। जब हमारी मांग उसे चारों तरफ से घेर लेती है तो उसे लगता है कि कारागृह हो गया है यह । अगर वह देता भी है तो मजबूरी है, प्रसन्नता खो जाती है। और बिना प्रसन्नता के जो दिया गया है वह कुम्हलाया हुआ होता है, मरा हुआ होता है। अगर वह देता भी है तो कर्तव्य हो जाता है, एक भार हो जाता है कि देना पड़ेगा। और प्रेम इतनी कोमल, इतनी डेलिकेट, इतनी नाजुक चीज है कि कर्तव्य का खयाल आते ही मर जाती है। ___ जहां खयाल आ गया कि यह प्रेम मुझे करना ही पड़ेगा, यह मेरा पति है, यह मेरी पत्नी है, यह मेरा मित्र है, यह तो प्रेम करना ही पड़ेगा। जहां प्रेम करना पड़ेगा बन जाता है, कर्तव्य बन जाता है, वहीं वह प्राण तिरोहित हो गये जिससे पक्षी उड़ता था। अब मरा हुआ पक्षी है, जिसके पंख सजाकर रखे जा सकते हैं, लेकिन उड़ने के काम में नहीं आ सकते । वह जो उड़ता था, वह थी स्वतंत्रता । कर्तव्य में कोई स्वतंत्रता नहीं है, एक बोझ है, एक ढोने का खयाल है।
प्रेम इतना नाजुक है कि इतना-सा बोझ भी नहीं सह सकता । प्रेम सूक्ष्मतम घटना है मनुष्य के मन में घटनेवाली। जहां तक मन का संबंध है, प्रेम बारीक से बारीक घटना है। फिर प्रेम के बाद मन में और कोई बारीक घटना नहीं है। फिर तो जो घटता है वह मन के पार है. जिसको हम प्रार्थना कहते हैं। वह मन के भीतर नहीं है। लेकिन मन की आखिरी सीमा पर, मन का जो सूक्ष्मतम रूप घट सकता है, वह प्रेम है। शुद्धतम, मन की जो आत्यंतिक, अल्टीमेट पासिबिलिटी है, आखिरी संभावना है, वह प्रेम है। वह बहत नाजुक है। हम
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