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________________ काम-भोग से विरक्ति महावीर के साधना-पथ की अत्यंत अनिवार्य भूमिका है। कामवृत्ति का अर्थ है, मैं अपने से बाहर जा रहा हूं। कामवृत्ति का अर्थ है, मेरा सुख किसी और में निर्भर है। कामवृत्ति का अर्थ है, मैं स्वयं अपने में पर्याप्त नहीं हूं, कोई और मुझे पूरा करने को जरूरी है। ___ साफ है कि कामवृत्ति से घिरा हुआ व्यक्ति कभी भी मुक्त नहीं हो सकता। जब तक दूसरा मेरे सुख का कारण है, तब तक दूसरा ही मेरे दुख का कारण भी होगा। और जब तक दूसरा मेरे जीवन का कारण बना है, तब तक मैं स्वतंत्र नहीं हूं। __ जब तक हम दूसरे पर निर्भर रहे चले जाते हैं, तब तक स्वतंत्रता का कोई स्पर्श भी नहीं हो सकता। इसलिए कामवृत्ति मौलिक बंधन है। और जो कामवत्ति से विरक्त हो जाता है, वह अनिवार्यतः अपनी ओर मडना शरू हो जाता है। लेकिन लोग कामवत्ति से विरक्त क्यों नहीं हो पाते? सुख की झलक दिखाई पड़ती है, सुख कभी मिलता नहीं; दुख काफी मिलता है। लेकिन सुख की आशा में आदमी झेले चला जाता है। __इस बात को थोड़ा ठीक से, गौर से देख लेना जरूरी है कि हम जीवन की इतनी पीड़ाएं क्यों झेले चले जाते हैं। आशा में कि आज सुख नहीं मिला, कल मिलेगा; इस व्यक्ति से सुख नहीं मिला, दूसरे व्यक्ति से मिलेगा; इस संबंध से सुख नहीं मिला तो दूसरे संबंध से सुख मिलेगा। लेकिन सुख दूसरे से मिल सकता है, यह हमारी स्वीकृत धारणा है। और यही धारणा सबसे ज्यादा खतरनाक धारणा है। __ सुख मिल सकता है, दूसरे से कभी किसी को नहीं मिला। कभी यह घटना ही इतिहास में नहीं घटी कि कोई दूसरे से सुखी हो गया हो। हां, दूसरे से सुख मिलने की आशा बांधे हुए व्यक्ति बहुत दुखी जरूर होता है। लेकिन फिर भी आशा बंधी रहती है। हम भविष्य में ताकते रहते हैं, झांकते रहते हैं। ___ यह आशा जब तक न टूट जाये जीवन के अनुभव से, तब तक विरक्ति का कोई जन्म नहीं है। और जब हम दूसरे से सुख पाने की आशा रखते हैं, तो स्वभावतः जो भी हमारे जीवन में घटित हो, हम दूसरे को ही उसके लिए जिम्मेवार माने चले जाते हैं। इसलिए खुद की अंतरजीवनधारा से सम्पर्क स्थापित नहीं होता। और वही सम्पर्क क्रांति ला सकता है। चाहे सुख हो, चाहे दुख; चाहे सुविधा हो, चाहे असुविधा; हम सदा दूसरे की तरफ आंखें लगाये रखते हैं। यह दूसरे की तरफ लगी हुई आंखें ही कामवृत्ति है। अगर कोई परमात्मा की तरफ भी आंखें लगाये हुए है कि उससे सुख मिलेगा, आनंद मिलेगा, तो महावीर कहेंगे, वह भी कामवृत्ति है; वह भी कामना का ही दिव्य रूप है-लेकिन कामना ही है। 533 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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