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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 के लिए थोड़ी-सी शिथिलता बंधनों की चाहिए। लेकिन हम तो बंधन के लिए बड़े आतुर रहते हैं। असल में बंधन जब तक न मिल जाये तब तक हमको चैन नहीं होती । बंधन में हमें बड़ी सुविधा मालूम पड़ती है। जब तक बंधन न हो, तब तक हम परेशान होते हैं, जैसे ही बंधन निर्मित हो जाये, हम व्यस्त हो जाते हैं। ___ मैने सुना है, एक मुसलमान फकीर एक ट्रेन में सफर कर रहा है। सारी जगहें भरी हुई हैं। कई लोग खड़े भी हुए हैं। और तभी एक स्त्री, गर्भिणी, आकर खड़ी हो गयी है। वह मुसलमान फकीर के बिलकुल बगल में खड़ी है। बाजार से कुछ रस्सियां खरीदकर तो रस्सियों का बंडल उसके हाथ में है। फकीर आंख बंद कर लेता है उसे देखकर । उसका पड़ोसी यात्री कहता है कि तुम क्या सो गये हो या तबियत खराब है? तो वह फकीर कहता है कि नहीं, यह बात नहीं। मैं किसी स्त्री को खड़े हुए देखना ट्रेन में नफरत करता हूं ! इसलिए आंख बंद कर ली है—न देखेंगे, न यह खयाल उठेगा कि स्त्री खड़ी है और मैं बैठा हूं। तो उस आदमी ने कहा कि अगर तुम इतने दयावान हो, तो उठकर उसको जगह क्यों नहीं दे देते? तो उस फकीर ने कहा, मेरे गुरु ने कहा है कि जहां भी बंधन की कोई व्यवस्था दिखाई पड़े, वहां जरा सावधान रहना। और वह स्त्री जो हाथ में रस्सी का बंडल लिये है, उससे मैं बोल भी नहीं सकता: उसकी तरफ मैं देख भी नहीं सकता। बहत-से साधु यही कर रहे हैं। जहां-जहां उन्हें बंधन की संभावना दिखाई पड़ती है, वहां वे देखते नहीं; वहां से भाग खड़े होते हैं। लेकिन बंधन बाहर नहीं है, जिससे भागा जा सके जिससे आंख बंद की जा सके। बंधन तो भीतर की वासना में है कि मैं बंधना चाहता हूं। और स्त्री से बचना आसान है, लेकिन अपने ही शरीर से बंधा हुआ हूं, उसी बंधन में सारा संसार उपस्थित हो गया है। मेरा बंधन मेरे शरीर के बाहर कहीं भी नहीं है। मेरा संसार भी मेरे शरीर के बाहर कहीं भी नहीं है। बाहर तो सब एक्सटेंशन्स हैं। लेकिन बुनियादी संसार मेरे भीतर है। और वहां से तोड़ने की बात है। __ यह तोड़ना-महावीर के हिसाब से—एक भेद, एक विवेक, एक बोध का परिणाम है। वह बोध भीतर रुकने की क्षमता से, अंधेरे में रुकने की क्षमता से, धैर्यपूर्वक अंधेरे में डूबे रहने की क्षमता से, प्रतीक्षा करने से अपने आप पैदा होना शुरू हो जाता है। ध्यान रहे चेतना का अपना प्रकाश है। हम इस जगत में जहां-जहां चीजों पर देखते है, वहां-वहां हमारी चेतना प्रकाश डालती है, रोशनी डालती है। यह रोशनी सिर्फ सूरज की नहीं है। सूरज की रोशनी काफी नहीं है। हमारी चेतना भी रोशन करती है हर चीज को, जिसे हम देखते हैं। हमारी आंखों से भी रोशनी बाहर जाती है। और यह कोई मैटाफिजिकल, कोई पारलौकिक सिद्धांत नहीं है। अब तो विज्ञान इसके समर्थन में है कि जब भी आप देखते हैं, तो आपकी जीवन-ऊर्जा जिन चीजों पर आप फेंकते हैं, उनको रोशन करती है। उनके भीतर गति भी शुरू हो जाती है। और देखकर आप अपनी रोशनी को पदार्थ से जोड़ते हैं। अगर कोई व्यक्ति न देखने की साधना करे : कुछ समय तक देखे ही नहीं-आंख को बंद ही रखे सुने ही नहीं-कान को बंद ही रखे; छुए ही नहीं-हाथ को बंद ही रखे, तो जो ऊर्जा इन इन्द्रियों से बाहर जा रही थी, वह सारी की सारी ऊर्जा भीतर इकट्ठी होने लगेगी; सघन होने लगेगी। उस सघनता में एक घड़ी आती है, जब भीतर का प्रकाश-बिंदु पैदा हो जाता है। __यह प्रकाशबिंदु वैसा ही है, जैसे हम सूरज की किरणों को इकट्ठा कर लें तो आग पैदा हो जाये। जैसे ही भीतर की किरणें इकट्ठी हो जाती हैं, भीतर की आग जल जाती है। लेकिन प्रतीक्षा चाहिए। और कोई समय पक्का नहीं हो सकता कि किसको कितनी देर लगेगी-इन्टेन्सिटी पर, तीव्रता पर निर्भर करेगा। कोई एक क्षण में भी इस भीतर के प्रकाश को उपलब्ध हो सकता है अगर बाहर से अपने को पूरा का पूरा रोक ले। इस रोक लेने 518 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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