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महावीर-वाणी भाग : 2
कमी सब गड़बड़ कर जाती है। जगत में सफलता आथेंटिक, प्रामाणिक को मिलती है, चाहे वह प्रामाणिक अपनी बेईमानी में ही क्यों न हो; निष्ठावान को मिलती है, चाहे उसकी निष्ठा गलत में ही क्यों न हो।
सत्य भी कमजोर है अगर निष्ठा उसके पीछे नहीं है। लेकिन पाखंडी... । यह तो आप पक्का जानते हैं कि आपको बेईमान पाखंडी मिलना मुश्किल है कि ऊपर-ऊपर बेईमानी और भीतर-भीतर ईमानदार । कभी आपने ऐसा कोई पाखंडी देखा है कि ऊपर-ऊपर बेईमानी, ऊपर-ऊपर चोरी, असत्य; भीतर-भीतर सब ठीक।
नहीं, अधर्म में कोई पाखंडी होते ही नहीं। सिर्फ धर्म में पाखंडी होते हैं-भीतर बेईमानी, चोरी, बदमाशी, सब-बाहर-बाहर अच्छा, कपडों पर सब रंगरोगन, भीतर सब गंदगी । इस पाखंड, इस द्वंद्व, इस आंतरिक और बाह्य के विरोध के कारण, जिसको हम भला आदमी कहते हैं, वह असफल होता है।
सफलता उसको मिलती है जो एकजुट है। और मैं कहता हूं कि बुराई तक सफल हो जाती है अगर एकजुट हो, तो जिस दिन भलाई एकजुट होती है, उसकी सफलता का तो कोई मुकाबला नहीं कर सकता ! सारा जगत उसके विपरीत हो जाये, तो भी उसकी सफलता का कोई मुकाबला नहीं हो सकता । लेकिन हम हमेशा बुरे में निष्ठावान होते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक कुत्ता बेचना चाहता है। बाजार में खड़ा है। कुत्ता बड़ा खूबसूरत है; बड़ा शानदार है; देखने में बड़ा ताकतवर है। एक आदमी खरीदने आता है । मुल्ला कहता है कि तीन सौ रुपया।
वह आदमी कहता है कि जरा ज्यादा दाम बता रहे हैं ! दिस इज टू मच ।
मुल्ला नसरुद्दीन कहता है, पहले इस कुत्ते को तो देखो ठीक से । दिस डाग इज आलसो टू मच ! इस कुत्ते की शान देखो ! इसका सौंदर्य देखो!'
वह आदमी कहता है, 'शान और सौंदर्य तो ठीक है, इनसे कोई आखिरी काम नहीं निकलता । इज दिस डाग फेथफुल आल्सो-क्या यह कुत्ता ईमानदार भी है; निष्ठावान भी है?'
नसरुद्दीन ने कहा, 'वह तो बात ही मत करो! डोन्ट टाक अबाउट हिज फेथफुलनेस । आइ हैव सोल्ड हिम सेवन टाइम्स, ही कम्स बैक विदिन टवेल्व आवर्स—इसकी निष्ठा की तो बात मत करो ! सात दफा बेच चके, बारह घंटे में वापिस आ जाता है। इसकी तुम फिक्र ही मत करो। मालिक के प्रति इसकी निष्ठा तो बिलकुल अटूट है !' . जहां हम जी रहे हैं, वहां अगर दुख है, पीड़ा है और हम सोचते हैं कि हम शुभ हैं, धार्मिक हैं, तो समझना, कहीं भूल हो रही है। धार्मिक व्यक्ति को पीड़ा होती ही नहीं, हो नहीं सकती। वह असंभव है। शुभ के साथ दुख का कोई संबंध ही नहीं है। और अगर दुख है, तो समझना कि सुख झूठ है, धोखा है। महावीर इसीलिए कहते हैं—पहले ज्ञान बाद में दया। _ 'इस क्रम पर त्यागी वर्ग अपनी संयम-यात्रा के लिए ठहरा हुआ है।' यही क्रम है, पहले ज्ञान फिर दया । पहले आंतरिक बोध, पहले भीतर का दीया जले, फिर आचरण में प्रकाश।
'भला, अज्ञानी मनुष्य क्या करेगा? श्रेय तथा पाप को वह जान ही कैसे सकेगा?' जिसके भीतर का दीया बुझा हुआ है, उसे कैसे पता चलेगा, क्या प्रकाश है और क्या अंधेरा है? क्या करने योग्य है, क्या करने योग्य नहीं है ? कहां जाऊं, कहां न जाऊं? उसे दिशाओं का कोई भी पता नहीं हो सकता है। इसलिए विवेक, होश पहली शर्त है।
'सुनकर ही कल्याण का मार्ग जाना जाता है । सुनकर ही पाप का मार्ग जाना जाता है। दोनों ही मार्ग सुनकर जाने जाते हैं । बुद्धिमान साधक का कर्तव्य है कि पहले श्रवण करे, फिर अपने को जो श्रेय मालूम हो, उसका आचरण करे।'
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