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________________ पहले ज्ञान, बाद में दया रख ही लेगी। वह अपने स्तन से दूध भी नहीं पिलाना पसंद करेगी—एक काम है, जो कोई और भी कर सकता है। प्रेम काम नहीं है। उसे कोई दूसरा नहीं कर सकता। प्रेम में हम किसी दूसरे को नहीं रख सकते। प्रेम हम खुद ही करेंगे; वह कर्तव्य नहीं है। वह हमारे प्राणों का भीतरी स्वर है. वह बाहरी व्यवस्था नहीं है। धर्म प्रेम की तरह है; नीति कर्तव्य की तरह है। इसलिए नीति करने की भाषा में बोलती है; यह करो, यह मत करो। और धर्म होने की भाषा में बोलता है; ऐसे हो जाओ, और ऐसे मत हो जाओ। ___ महावीर के ये सूत्र धर्म के सूत्र हैं। इन्हें समझने के पहले यह खयाल में ले लेना जरूरी है कि जोर बीईंग पर है, अंतरात्मा पर है; कर्म पर, कृत्य पर नहीं है। इसलिए महावीर से जब पूछा जाता है, तो वे यह नहीं कहते कि यह यह काम मत करना। वे यह कहते हैं, इस भांति की चेतना हो जाना। बस, पाप कर्म अपने-आप बंद हो जायेंगे। संत अगस्टीन से किसी ने पूछा है कि मैं क्या करूं कि पाप न हो; क्या करूं कि पुण्य हो? तो अगस्टीन ने कहा कि अगर मैं कर्तव्यों को गिनाने बैलूं तो बड़ी लंबी फेहरिस्त हो जायेगी; यह करो, यह मत करो। अगर एक-एक कर्तव्य को विस्तार से गिनाने बैलूं तो फेहरिस्त का कभी अंत नहीं होगा। और कितनी ही बड़ी फेहरिस्त हो, फिर भी तुम उसके भीतर से तरकीब निकाल लोगे जो तुम्हें करना है उसकी। __इसलिए कानून किसी को अपराध से नहीं रोक पाता। कानून के बीच से हमेशा रास्ता निकल आता है अपराध करने का। असल में कानून लोगों को सिर्फ कुशल अपराधी बनाता है। अकुशल अपराधी पकड़े जाते हैं, कुशल अपराधी सिंहासनों की यात्रा करते रहते हैं। कानून सिर्फ आपको समझदार बनाता है; चालाक बनाता है; होशियार बनाता है; गैर-अपराधी नहीं बनाता। ___ अगस्टीन ने उस आदमी को कहा : इसलिए तुझे मैं एक ही बात कह दूं, क्योंकि लंबी फेहरिस्त से कुछ न होगा। अगर तू प्रेम कर सकता है, तो फिर तू जो भी करेगा, वह ठीक होगा। और अगर तू प्रेम नहीं कर सकता, तो तू जो भी करेगा, वह गलत होगा। ___ अगस्टीन कह रहा है कि प्रेम एकमात्र नियम है। बात वही है, क्योंकि प्रेम कृत्य नहीं है, भीतरी अवस्था है। आपके कृत्य से प्रेम का पता नहीं चलता, आपके होने के ढंग से ही पता चलता है कि आप प्रेमपूर्ण हैं या नहीं।। __ आप कितने ही कृत्य करें, तो भी प्रेम को आप भर नहीं सकते। अगर प्रेम खो गया है, तो कितनी ही भेंट लायें प्रेयसी के लिए और | इंतजाम करें, कितना ही अच्छा मकान बनायें, बगीचा लगायें: सब साधन-सविधाएं जटायें: अगर प्रेम खो गया है, तो कोई भी चीज परिपूरक नहीं हो सकती। बड़े से बड़ा मकान, बड़े से बड़ी गाड़ी, बड़े से बड़ी व्यवस्था, नौकर-चाकर कुछ भी पूरा नहीं कर सकते। और अगर प्रेम है, तो सड़क पर भीख भी आप मांगते हों, तो भी घटना घट सकती है। प्रेम आंतरिक है। आपके करने से उसका संबंध नहीं है, आपके होने के ढंग से संबंध है। इसलिए प्रेम धर्म के निकटतम है। और अगर जीसस ने कहा है कि लव इज गाड, ईश्वर प्रेम है, तो उसका अर्थ यही है कि हमारे जीवन में प्रेम, जैसे आंतरिक है, ऐसी ही आंतरिकता जब ईश्वर की हमारे भीतर होनी शुरू हो जाये तो हम धर्म के जगत में प्रवेश करते हैं। सूत्र को लें। 'भन्ते!' कोई पूछता है महावीर से, कोई जिज्ञासा करता है : 'भन्ते ! साधक कैसे चले? कैसे खड़ा हो? कैसे बैठे? कैसे सोये? कैसे भोजन करे? कैसे बोले-जिससे पाप-कर्म का बंध न हो?' 489 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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