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कल्याण- पथ पर खड़ा है भिक्षु
स्त्री से आकर्षित होता है । यह आकर्षण जीवन के सभी आयामों में फैला हुआ है। आप अपने विपरीत से आकर्षित होते हैं । भोगी त्यागी से आकर्षित होता है। पापी पुण्यात्मा से आकर्षित होता है। पापी जाता है पुण्यात्मा के पास, लेकिन अगर पुण्यात्मा उसको यह बोध ही न दे कि तू पापी है, तो उसके जाने का मजा समाप्त हो जाये। एक खुजली है, जिसको वह खुजलाता है।
तो जब आप साधु के पास जाते हैं, और साधु आपकी निंदा करता है, तो चाहे ऊपर से आपको बुरा भी लगता हो, लेकिन भीतर से अच्छा लगता है । यह भीतर से अच्छा लगना एक रोग है - आपका भी और साधु का भी । आप उस साधु के पास शायद जाना पसंद ही नहीं करेंगे, जिसके मन में आपके प्रति कोई निंदा नहीं है। क्योंकि आपको उसके प्रति कोई आदर ही मालूम नहीं होगा। आपको आदर उसी के प्रति मालूम हो सकता है, जिसके द्वारा आपके प्रति अनादर बहता है। जो आपसे ऊंचा मालूम होता है, उसी के प्रति आदर मालूम है।
इसलिए अकसर ऐसा होता है कि परम साधुओं को लोग पहचान ही नहीं पाते; सिर्फ उनको पहचान पाते हैं, जो साधु नहीं है। तो साधु के धंधे की एक व्यवस्था है कि वह आपकी जितनी निंदा करे, उतना आप उसके निकट जायेंगे ।
जाकर साधुओं के प्रवचन सुनें। वे जितनी आपको गालियां दें और आपकी निंदा करें, आप उतने ही मुस्कुराते हैं, और आप कहते हैं कि बात तो बिलकुल ठीक है। सच में तो यह है कि आप भी अपने को कभी भी इस हालत में नहीं मानते कि ऐसी कोई बुराई है, जो आपने नहीं की है। और जब कोई आपकी निंदा करता है, तो आपको भी लगता है कि सत्य कह रहा है- - आप भला उसके सत्य को मान न पाते हों। जीवन की असुविधाएं हैं, कठिनाइयां हैं - आप पूरा न कर पाते हों; लेकिन उसकी निंदा से आप भी राजी हैं।
सच में, आप खुद ही आत्मनिंदा से, सेल्फ कंडेनेशन से इतने भरे हैं कि जो भी आपकी निंदा करता है, उससे आप राजी हो जाते हैं। लेकिन महावीर साधु की व्याख्या में पहली बात यह कहते हैं कि जो, दूसरा दुराचारी है, न तो ऐसा कहता है, न ऐसा मानता है; न ऐसा सोचता है, न ऐसा भाव करता है; दूसरे के संबंध में बुराई की धारणा छोड़ देता है, ऐसा व्यक्ति साधु है ।
लेकिन ऐसा साधु आपको बहुत अपील नहीं करेगा। जो आपको अपराधी सिद्ध न करे, वह आपको सच ही मालूम न पड़ेगा। अगर कोई साधु आपको समभाव से ले-नीचे-ऊंचे का भाव न करे; आपके कंधे पर हाथ रख दे; मित्र की तरह आपसे बात करे - आप उस साधु के पास जाना बंद कर देंगे।
आप तलाश कर रहे हैं किसी की, जो आपकी निंदा करे। क्योंकि आप अपनी ही निंदा में लीन हैं। लेकिन महावीर कहते हैं, साधु का पहला लक्षण यह है... । अगर यह लक्षण साधु का है, तो सौ में से निन्यानबे साधु, साधु सिद्ध नहीं होंगे। वे आपकी बीमारी का हिस्सा हैं। आप जो चाहते हैं, वे कर रहे हैं।
जगत में स्वयं को दुख देनेवाले लोगों की बड़ी कतार है। और जहां भी उनको दुख मिलता है, वहां उनको रस आता है। साधु आपको एक तरह से दुख दे रहा है। क्योंकि वह कह रहा है कि आप निंदित हैं, पापी हैं। नर्क और नर्क की जलती हुई लपटें जिन्होंने विकसित की हैं, जिन्होंने धारणाएं बनायी हैं ये, महावीर उन्हें साधु नहीं कह सकते। क्योंकि जब दूसरे को दुराचारी ही नहीं विचार करना है, तो दूसरे को नर्क में डालने का खयाल ही क्या !
ट्रेंड रसेल ने एक किताब लिखी है बड़ी अनूठी : 'व्हाइ आइ एम नाट ए क्रिश्चियन - मैं ईसाई क्यों नहीं हूं' और जो दलीलें दी हैं...और दलीलें तो ठीक हैं, लेकिन एक दलील सच में बहुत महत्वपूर्ण है। महावीर भी उससे राजी होते। और वह दलील यह है कि जीसस के मुंह से इस तरह के वचन कहलवाये गये हैं बाइबिल में, जिनसे ऐसा लगता है कि जीसस लोगों को नर्क में डालने में रस ले रहे हैं - कि तुम सताये जाओगे; कि तुम छेदे जाओगे; कि कीड़े-मकोड़े तुम्हारे शरीर से गुजरेंगे; कि अग्नि में तुम पटके जाओगे; कि
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