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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 उस भिक्षु ने कहा, 'अनुगृहीत हं। क्योंकि इतने प्रेम से कोई कहता भी कहा है कि जाओ, भिक्षा न मिलेगी! इतना भी क्या कम है? भिखारी के लिए द्वार तक आना और कहना कि क्षमा करो, भिक्षा न मिलेगी, क्या कम है? मेरी पात्रता क्या है ! अनुगृहीत हूं ! और तुम्हारे द्वार पर मेरे लिए साधना का जो अवसर मिला है, वह किसी दूसरे द्वार पर नहीं मिला है। इसलिए नाराज मत होओ, मुझे आने दो। तुम भिक्षा दो या न दो, यह सवाल नहीं है।' ___ महावीर कहते हैं, अज्ञात द्वार से-जानी-मानी जगह भिक्षा मिल जायेगी, भिक्षा मूल्यवान नहीं है। भिक्षु के लिए, संन्यस्त के लिए भोजन मूल्यवान नहीं है, भोजन के प्रति जो उसका रुख है, दृष्टिकोण है, वह मूल्यवान है। तो अज्ञात द्वार पर, जहां कोई अपेक्षा नहीं है, जहां सम्भावना है इनकार की, वहां से भिक्षा मांग लाता है जो। ___ किसी तरह की अपेक्षा का फैलाव न हो जीवन में, तो संसार बिखर जाता है। हम तो ऐसी अपेक्षाएं बना लेते हैं, जिनका हमें पता नहीं है। अगर आप रास्ते पर मुझे मिलते हैं, मैं रोज नमस्कार कर लेता हूं; एक दिन नमस्कार न करूं तो आप दुखी हो जाते हैं कि इस आदमी ने नमस्कार क्यों नहीं किया?...क्या मतलब? __ नमस्कार तक की हम अपेक्षा बना लेते हैं कि कौन करेगा। जो आदमी आपको देखकर रोज मुस्कुराता है, अगर न मुस्कुराये, तो आप बेचैन हैं। तब फिर आदमियों को झूठा मुस्कुराना पड़ता है। आप देखें कि वे मुस्कुरा रहे हैं, उन्होंने मुंह फैला दिया-अकारण, कोई कारण नहीं है। लेकिन आप-नाहक उपद्रव खड़ा करना कोई उचित भी नहीं है-आप भी मुस्कुरा रहे हैं, वह भी मुस्कुरा रहे हैं। दो झूठी मुस्कुराहटें, जिनके पीछे आदमियों को कोई लेना-देना नहीं है ! अपेक्षाएं जीवन को झूठा कर जाती हैं। महावीर कहते हैं : न तो खुद झूठे हों, और न दूसरों को झूठा होने का मौका देना, क्योंकि वह भी पाप है। अगर दो-चार दिन तुम एक जगह से भिक्षा मांग लाये और पांचवें दिन गये, तो उस घर के लोग भी सोचेंगे, भिक्षु अपेक्षा रखता है। अगर न देंगे तो दुखी होगा। और अगर न देंगे तो हमारी प्रतिष्ठा को भी चोट पहुंचती है। अगर न देंगे तो हमें भी अच्छा नहीं लगेगा। तो शायद उन्हें देना पड़े, जब कि वे नहीं देना चाहते थे। तो तुम अज्ञात द्वार पर जाना, जहां कोई अपेक्षा का संबंध नहीं है। __ 'जो संयम-पथ में बाधक होनेवाले दोषों से दूर रहता है...।' संयम-पथ पर बहुत-सी बाधाएं हैं-होंगी ही। उन बाधाओं से जो दूर रहता है। दूर रहने का प्रयोजन इतना है कि अकारण उनमें उलझने की कोई जरूरत नहीं है। _आप जहां रह रहे हैं, वहां चारों तरफ हजारों तरह के लोग हैं। एक संन्यस्त व्यक्ति अगर आपके गांव में आता है, हजार तरह की बाधाएं आप मौजूद कर देंगे बिना सचेतन रूप से जाने हुए। आप गांव की गपशप जाकर उसे सुनाने लगेंगे; किसी की निंदा, किसी की प्रशंसा करने लगेंगे। उस आदमी को भी आप पक्ष विपक्ष में बांटने लगेंगे। ___ यदि संयम-पथ का सच में कोई साधक हो, तो इन सारी चीजों से ऐसे दूर रहेगा, जैसे यह सब घटनाएं उसके आस पास नहीं घट रहीं। वह तभी बोलेगा, जब उसकी साधना के लिए सहयोगी हो। अन्यथा चुप होगा। वह किसी चीज में सहमति असहमति नहीं देगा, जब तक कि वह उसकी साधना के लिए कुछ सहयोगी न हो। वह व्यर्थ की बातें सुनना भी नहीं चाहेगा, सुनाना भी नहीं चाहेगा। वह ऐसी कोई चीज खड़ी नहीं करना चाहेगा, जिससे आज नहीं कल जाकर परेशानी शुरू हो जाये। परेशानियां बड़ी छोटी चीजों से शुरू होती हैं। आपने सुनी होगी, बहुत प्राचीन कथा है। एक संन्यासी जंगल में रहता है अकेला। भिक्षा मांगने जाता है। भिक्षा लेकर आता है 454 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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