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भिक्षु कौन?
बात कहे देती हूं कि उस वक्त तो हमारे मन में यही भाव था।' __ क्योंकि जीसस का बाप बढ़ई था। और बढ़ई चाहता होगा कि उसका बेटा अच्छा बढ़ई बने। दूर-दूर तक उसकी ख्याति पहुंचे-उसके सामानों की, उसके फर्नीचर की, उसकी बनायी हुई चीजों की। तो मैरी बड़ी सच्ची बात कह रही है। और मैरी-जैसी मां ही कह सकती है, इतनी सच्ची बात। __ आदमी का मन ऐसा है। उसकी वासनाएं क्या हैं, चाहता क्या है—अगर परमात्मा भी उपलब्ध हो, तो भी तृप्ति नहीं होनेवाली तो
भी कुछ अतृप्त रह जायेगा। कहीं कुछ खटकता ही रहेगा। कहीं कोई शिकायत मौजूद रह जायेगी। ___ अगर आप शिकायत से भरे हैं, तो उसका कारण यह नहीं है कि आपकी जिंदगी में शिकायत है। अगर आप शिकायत से भरे हैं, तो उसका कारण यह है कि जैसा मन आपके पास है, वह मन शिकायत से भरा ही हो सकता है। ___ हम पूरे जीवन इन शिकायतों को मिटाने की कोशिश करते हैं। महावीर कहते हैं : संन्यस्त वह है, जो शिकायत के मूल आधार को भीतर तोड़ देता है। वह मूल आधार लोभ है, लालच है- 'और ज्यादा' का भाव ।
'जो अज्ञात परिवारों से भिक्षा मांग लाता है...।' महावीर का बहुत जोर है कि भिक्षु अज्ञात परिवारों से भिक्षा मांगे। क्योंकि ज्ञात परिवारों से संबंध निश्चित होने शुरू हो जाते हैं। और जैसे ही संबंध बनने लगते हैं, भिक्षु की आकांक्षाएं सजग हो सकती हैं। अनजाने, अचेतन में भी वह आशा कर सकता है कि क्या मिलेगा। तो अज्ञात परिवारों से इसलिए, ताकि भविष्य सदा अनजान रहे। जैसे ही भविष्य जाना-माना होता है, मन सक्रिय हो जाता है। भविष्य बिलकुल 'अननोन' रहे। यह भी अन्दाज न हो कि जिस द्वार पर खड़े होकर मैं भीख मांगूंगा, वहां भीख मिलेगी भी या नहीं। भीख मिलेगी तो रूखी-सूखी रोटी मिलने वाली है या कुछ मिष्ठान्न मिलनेवाले हैं। गाली मिलेगी; अपमान मिलेगा; दरवाजे से हट जाने की आज्ञा मिलेगी...। __ एक बौद्ध भिक्षु की कथा है कि वह एक ब्राह्मण के द्वार पर भिक्षा मांगने गया। ब्राह्मण का घर था, बुद्ध से ब्राह्मण नाराज था। उसने
अपने घर के लोगों को कह रखा था कि और कुछ भी हो, बौद्ध भिक्षु भर को एक दाना भी मत देना कभी इस घर से। ब्राम्हण घर पर नहीं था, पत्नी घर पर थी; भिक्षु को देखकर उसका मन तो हुआ कि कुछ दे दे। इतना शान्त, चुपचाप, मौन भिक्षा-पात्र फैलाये खड़ा था, और ऐसा पवित्र, फूल-जैसा। लेकिन पति की याद आयी कि वह पति पण्डित है और पण्डित भयंकर होते हैं, वह लौटकर टूट पड़ेगा। सिद्धान्त का सवाल है उसके लिए। कौन निर्दोष है बच्चे की तरह, यह सवाल नहीं है, सिद्धान्त का सवाल है—भिक्षु को, बौद्ध भिक्षु को देना अपने धर्म पर कुल्हाड़ी मारना है। वहां शास्त्र मूल्यवान है, जीवित सत्यों का कोई मूल्य नहीं है। तो भी उसने सोचा कि इस भिक्षुको ऐसे ही चले जाने देना अच्छा नहीं होगा। वह बाहर आयी और उसने कहा : क्षमा करें, यहां भिक्षा न मिल सकेगी। __ भिक्षु चला गया। पर बड़ी हैरानी हुई कि दूसरे दिन फिर भिक्षु द्वार पर खड़ा है। वह पत्नी भी थोड़ी चिन्तित हुई कि कल मना भी कर दिया। फिर उसने मना किया।
कहानी बड़ी अनूठी है; शायद न भी घटी हो, घटी हो। कहते हैं, ग्यारह साल तक वह भिक्षु उस द्वार पर भिक्षा मांगने आता ही रहा। और रोज जब पत्नी कह देती कि क्षमा करें, यहां भिक्षा न मिल सकेगी, वह चला जाता। ग्यारह साल में पण्डित भी परेशान हो गया। पत्नी भी बार-बार कहती कि क्या अदभुत आदमी है ! दिखता है कि बिना भिक्षा लिये जायेगा ही नहीं। ग्यारह साल काफी लम्बा वक्त है। आखिर एक दिन पण्डित ने उसे रास्ते में पकड़ लिया और कहा कि सुनो, तुम किस आशा से आये चले जा रहे हो, जब तुम्हें कह दिया निरन्तर हजारों बार?
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