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________________ भिक्षु कौन? मेरे एक मित्र है; डाक्टर हैं। एक दुर्घटना में ट्रेन से वे गिर पड़े; भीड़ बहुत थी और दरवाजे से लटके हुए खड़े थे। हाथ छूट गया और गिर गये। गिरने से सिर पर भयानक चोट लगी। ऊपर से तो कुछ चोट पता नहीं चलती थी, लेकिन भीतर से सारी स्मृतियां भूल गयीं। खुद का नाम भी याद न रहा। अपनी मां और अपने पिता को भी नहीं पहचान सकते थे। सारी जानकारी, मेडिकल साइन्स का सारा अध्ययन-सब तिरोहित हो गया। फिर से-अ, ब, स से सब शुरू करना पड़ा। तीन साल में इस हालत में हो पाये कि ठीक से बातचीत कर सकें, भाषा समझ सकें, अखबार पढ़ सकें। जब गिरे तब उनकी उम्र कोई पैंतीस-छत्तीस वर्ष थी। वे पैंतीस वर्ष तिरोहित हो गये। वे कहां खो गये ! हमारा सारा का सारा बोध तो स्मृति पर निर्भर है। वह जो हमारी स्मृति है, अगर वह खो जाए, तो सब अतीत खो जाता है। तीन साल के बाद धीरे-धीरे मस्तिष्क स्वस्थ हुआ और पुरानी स्मृतियां फिर जगनी शुरू हो गयीं। ___ जो लोग जीवन के संबंध में गहन खोज किये हैं, उनका खयाल है कि मृत्यु इतना बड़ा शाक है, इतना बड़ा धक्का है कि ट्रेन से गिरने से इतना बड़ा धक्का नहीं लग सकता। उस धक्के में पुरानी स्मृतियों से हमारा संबंध छूट जाता है। फिर जन्म भी बहुत बड़ा धक्का है। दोनों ही बड़े ट्रॉमैटिक, बड़े धक्के हैं। जब एक आदमी मरता है तो सारा स्मतियों का जगत अस्तव्यस्त हो जाता है; सब संबंध विच्छिन्न हो जाते हैं; सब तार खो जाते हैं। फिर जब जन्मता है, तब फिर एक धक्का लगता है। ये दो धक्कों के कारण अतीत से हम बन्द हो जाते हैं। और हर बार हमें लगता है कि सब नया हो रहा है। ___ यह जो नये का भाव है, जब तक न टूट जाए, तब तक जीवन से मुक्ति की आकांक्षा पैदा नहीं होती। महावीर कहते हैं कि पीछे लौटकर स्मरण करो। और जरा-सी भी स्मृति आनी शुरू हो जाए तो जीवन से रस खोना शुरू हो जाता है। इस जीवन से, जिसे हम अभी जीवन समझते हैं; और एक नया रस, और एक नया संगीत, और एक नयी दिशा खुलने लगती है, जिसे महावीर ने 'मोक्ष' कहा है। ___ संन्यस्त व्यक्ति का अर्थ है, जिसे इस जीवन में ऊब पैदा हो गयी। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। इस जीवन में सुख अनुभव हो, तो आदमी संसारी रहेगा; और इस जीवन में दुख अनुभव हो, तो भी आदमी संसारी रहेगा। सुख और दुख दोनों में ऊब पैदा हो जाये, बोर्डम पैदा हो जाये, तो आदमी संन्यस्त होता है। बहुत से लोग जीवन के दुख के कारण जीवन को छोड़कर संन्यास ले लेते हैं। उनका संन्यास वास्तविक नहीं है; क्योंकि दुख की प्रतीति ही इसी बात की खबर है कि उनमें सुख की आकांक्षा अभी मौजूद है। हमें दुख मिलता इसलिए है कि हम सुख चाहते हैं। जो दुख के कारण जगत को छोड़ता है, वह सुख के लिए जगत को छोड़ रहा है। और जो सुख के लिए छोड़ रहा है, वह छोड़ ही नहीं रहा है। क्योंकि सुख की आकांक्षा ही संसार है।। बहुत से लोग दुख में संसार छोड़ते हैं-शायद सौ में निन्यानबे संन्यासी दुख में ही छोड़ते हैं। उनका संन्यास वास्तविक नहीं हो पाता। ___ 'ऊब'-इस शब्द को बहुत याद रख लें; बोर्डम। जो आदमी जगत को इतना व्यर्थ पाता है कि उसके सुख भी उबाते हैं और दुख भी उबाते हैं; दोनों बराबर हो जाते हैं, और दोनों में विरसता आती है—उस व्यक्ति के जीवन की यात्रा नयी होती है। ___ इस संबंध में यह भी खयाल में ले लेना जरूरी है कि आदमी अकेला प्राणी है जगत में, जो ऊब सकता है। कोई दूसरा पशु ऊब नहीं सकता। किसी भैंस को, किसी घोड़े को, किसी सिंह को कभी भी बोर्डम की हालत में नहीं देखा गया है कि वे ऊबे हुए हों। भैंस रोज अपना वही चारा चबाती रहती है, जुगाली करती रहती है, लेकिन ऊबती नहीं। ऊब बिलकुल मनुष्य के जीवन की घटना है। ऊब 445 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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