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________________ अस्पर्शित, अकंप है भिक्षु बुद्ध के पास एक आदमी बैठा है सामने और बैठकर अपने पैर का अंगूठा हिला रहा है। बुद्ध बोलना बंद कर देते हैं और कहते हैं, 'मित्र, यह अंगूठा क्यों हिलता है ?' उस आदमी का अंगूठा, जैसे ही बुद्ध यह कहते हैं, रुक जाता है। रोकने की जरूरत नहीं पड़ती, होश आ जाता है; उसे खुद ही खयाल आ जाता है । वह कहता है, 'छोड़िये भी, आप भी कहां की बात में पड़ गये । यह तो यों ही हिलता था, मुझे कुछ पता ही नहीं था।' ___ बुद्ध ने कहा, 'तेरा अंगूठा, और तुझे पता न हो और हिलता रहे, तो तू बड़ा खतरनाक आदमी है। तू किसी की गर्दन भी काट सकता है, तेरा हाथ हिल जाए । तेरा अंगूठा और तुझे पता नहीं है, और हिलता है, तो तू मालिक नहीं है। होश संभाल।' तो महावीर कहते हैं : हाथ, पांव, वाणी, इन्द्रियां जिसकी सभी संयमित हो गयी हैं, जिसके विवेक ने सभी चीजों की मालकियत आत्मा को दे दी है; और अब कोई भी इन्द्रिय अपने ढंग से, अपने-आप कहीं नहीं जा सकती; आपकी बिना मर्जी के रोआं भी नहीं हिल सकता...। जो सदा अध्यात्म में रत है; जिसका जीवन, जिसकी चेतना, जिसकी ऊर्जा प्रतिपल एक ही बात की खोज कर रही है कि 'मैं कौन हूं?' जो हर अनुभव से अनुभोक्ता को पकड़ने की चेष्टा में लगा है। जो हर घड़ी बाहर से भीतर की तरफ मुड़ रहा है । जो हर अवसर को बदल लेता है और चेष्टा करता है कि हर अवसर में मुझे मेरा स्मरण सजग हो जाए । जो हर स्थिति में आत्मस्मृति को जगाने की कोशिश में लगा है। जो भीतर के दीये को उकसाता रहता है, ताकि वहां ज्योति मद्धिम न हो जाए, और बाहर का कितना भी अंधेरा हो, भीतर के प्रकाश को आच्छादित न कर ले। ऐसे व्यक्ति को महावीर भिक्षु कहते हैं। 'जो अपने को सब भांति समाधिस्थ करता है, सूत्रार्थ को जाननेवाला है, वही भिक्षु है।' समाधि शब्द बड़ा अदभुत है। समाधान शब्द से हम परिचित हैं। समाधि समाधान का अंतिम क्षण है । जो व्यक्ति सब भांति अपना समाधान खोज लिया है। जिसके जीवन में अब कोई समस्या नहीं है, कोई प्रश्न नहीं है; जो हर तरह से समाधिस्थ है। यह थोड़ा सोचने जैसा है। हम सब पूछते चले जाते हैं। जितना हम पूछते हैं, उतने उत्तर मिल जाते हैं। लेकिन हर उत्तर और नये प्रश्न खड़े कर देता है । हजारों साल से आदमी पूछ रहा है। किसी प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है। हर प्रश्न कुछ उत्तर लाता है, लेकिन फिर उत्तर से नये प्रश्न खड़े हो जाते हैं। __ कोई पूछता है, किसने बनाया जगत? कोई कहता है, ईश्वर ने बनाया। अब फिर सवाल ईश्वर का हो जाता है कि ईश्वर कौन है ? क्यों बनाया? और इतने दिन तक क्या करता रहा, जब तक नहीं बनाया? और ऐसा जगत किसलिए बनाया, जहां दुख ही दुख है ? ___ हजार प्रश्न खड़े होते हैं एक उत्तर से । दर्शन शास्त्र, फिलासाफी-प्रश्न, उत्तर और उत्तर से हजार प्रश्न-इस तरह बढ़ता जाता है वृक्ष। धर्म समाधि की खोज है, उत्तर की नहीं । तो धर्म की यात्रा बिलकुल अलग है। प्रश्न का उत्तर नहीं खोजना है, बल्कि प्रश्न गिर जाए, ऐसी चित्त की अवस्था खोजनी है। एक प्रश्न उठता है 'किसने जगत बनाया', अब इसके उत्तर की खोज में आप निकल जायें तो अनंत जीवन आप चलते रहेंगे। लेकिन धार्मिक व्यक्ति, जिसको महावीर भिक्षु कह रहे हैं—संन्यासी, वह यह नहीं पूछता कि किसने जगत बनाया? वह कहता है, यह निष्प्रयोजन है। किसी ने बनाया हो, न बनाया हो—मुझे क्या लेना-देना है ! असली सवाल यह नहीं है कि जगत किसने बनाया। असली सवाल यह है कि मैं ऐसी अवस्था में कैसे पहुंच जाऊं, जहां कोई प्रश्न न हो; जहां मेरा चित्त निस्तरंग हो जाए; जहां कोई समस्या न हो। 439 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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