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अलिप्तता और अनासक्ति का भाव-बोध
पशु प्रकृति-जन्य है। आदमी भी प्रकृति-जन्य है, जब तक धर्म उसके जीवन में प्रवेश नहीं करता। जिस क्षण धर्म जीवन में प्रवेश करता है, उसी दिन मनुष्य प्रकृति से परमात्मा की तरफ उठने लगा।
प्रकृति है निम्नतम, अचेतन छोर; परमात्मा है अंतिम, आत्यंतिक चेतन छोर । जो अपने आप हो रहा है, अचेतना में हो रहा है, वह है प्रकृति । जो होगा चेष्टा से, जागरूक प्रयत्न से, वह है धर्म । और जिस दिन यह प्रश्न इतना बड़ा हो जायेगा कि अचेतन कुछ भी न रह जायेगा, भूख भी लगेगी तो मेरी आज्ञा से, प्यास भी लगेगी तो मेरी आज्ञा से, चलूंगा तो मेरी आज्ञा से, उलूंगा तो मेरी आज्ञा से, शरीर भी जिस दिन प्रकृति न रह जायेगा, अनुशासन बन जायेगा, उस दिन व्यक्ति परमात्मा हो गया। ___ अभी तो हम जो भी कर रहे हैं, सोचते भी हैं तो, मंदिर भी जाते हैं तो, प्रार्थना भी करते हैं तो, खयाल कर लेना, प्रकृति-जन्य तो नहीं है। हमारा तो धर्म भी प्रकृति-जन्य होगा। इसलिए धर्म नहीं होगा, धोखा होगा। जिसको हम धर्म कहते हैं, वह धोखा है धर्म का। इसलिए जब आप दुख में होते हैं तो धर्म की याद आती है। सुख में नहीं आती। __बर्टेन्ड ने तो कहा है कि जब तक दुख है, तभी तक धर्मगुरु भगवान से प्रार्थना करें कि बचे हुए हैं। जिस दिन दुख नहीं होगा उस दिन धर्मगुरु नहीं होगा। वह ठीक कहता है। निन्यानबे प्रतिशत बात ठीक है। कम से कम आपके धर्मगुरु तो नहीं बच सकते, अगर दुख समाप्त हो जाये। क्योंकि दुखी आदमी उनके पास जाता है । दुख जब होता है तब आपको धर्म की याद आती है, क्यों? क्योंकि आप सोचते हैं कि अब यह दुख मिटता नहीं दिखता है, अब कोई उपाय नहीं दिखता मिटाने का, तो अब धर्म की तलाश में जायें। जब आप सुखी होते हैं तो निश्चिंत हैं, तब कोई बात नहीं। आप ही अपने मसले हल कर रहे हैं, परमात्मा की कोई जरूरत नहीं है । जब आपकी
उलझ जाती है—प्रकतिगत समस्या--जो आप हल नहीं कर पाते, तब आप परमात्मा की तरफ जाते हैं।
मर्थता उसका धर्म है? आदमी की नपुंसकता उसका धर्म है? उसकी विवशता? जब वह कुछ नहीं कर पाता तब वह परमात्मा की तरफ चल पड़ता है। तब तो उसका मतलब यह हुआ कि वह परमात्मा की तरफ भी किसी प्रकृति-जन्य प्यास या भूख को पूरा करने जा रहा है। अगर आप परमात्मा के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हैं कि मेरे लड़के की नौकरी लगा दे, कि मेरी पत्नी की बीमारी ठीक कर दे, तो उसका अर्थ क्या हुआ? उसका अर्थ हुआ कि आपकी भूख तो प्रकृति-जन्य है, और आप परमात्मा के सामने हाथ जोड़कर खड़े हैं। आप परमात्मा से भी थोड़ी सेवा लेने की उत्सुकता रखते हैं। थोड़ा अनुगृहीत करना चाहते हैं उसको भी, कि थोड़ा सेवा का अवसर देना चाहते हैं। इसका, ऐसे धर्म का कोई भी संबंध धर्म से नहीं है। ___ यह जो आशुप्रज्ञ होना है, यह प्रकृति-दत्त नहीं है। यह आपकी इन्सटिंक्ट, आपकी मूल वृत्तियों से पैदा नहीं होगा। कब होगा पैदा यह? अगर यह प्रकृति से पैदा नहीं होगा तो फिर पैदा कैसे होगा? यह कठिन बात मालूम होती है। यह तब पैदा होता है जब हम प्रकृति से ऊब जाते हैं, यह तब पैदा होता है जब हम प्रकृति से भर जाते हैं । यह तब पैदा होता है जब हम देख लेते हैं कि प्रकृति में कुछ भी पाने को नहीं है। यह दख से पैदा नहीं होता। जब हमें सख भी दख जैसा मालूम होने लगता है, तब पैदा होता है। यह अतृप्ति से पैदा नहीं होता है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें।
प्रकृति की सब भूख प्यास कमी से पैदा होती है। शरीर में पानी की कमी है तो प्यास पैदा होती है। शरीर में भोजन की कमी है तो भूख पैदा होती है। शरीर में वीर्य ऊर्जा ज्यादा इकट्ठी हो गयी तो कामवासना पैदा होती है । फेंको उसे बाहर, उलीचो उसे, फेंक दो उसे, खाली हो जाओ, ताकि फिर भर सको।
शरीर की दो तरह की जरूरतें हैं-भरने की और निकालने की । जो चीज नहीं है उसे भरो. जो चीज ज्यादा हो जाये उसे निकालो। यह शरीर की कुल दुनिया है । वीर्य भी एक मल है । जब ज्यादा हो जाये तो उसे फेंक दो बाहर, नहीं तो वह बोझिल करेगा, सिर को भारी
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