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भिक्षु-सूत्र : 1
रोइय-नायपुत्त-वयणे, अप्पसमे मन्नेज छप्पि काए। पंच य फासे महव्वयाई, पंचासवसंवरे जे स भिक्खू ।। सम्मदिट्ठि सया अमूढे, अस्थि हु नाणे तवे संजमे य ।
तवसा धुणइ पुराणपावगं, मण-वय-कायसुसंवुडे जे स भिक्खू ।।
जो ज्ञातपुत्र-भगवान महावीर के प्रवचनों पर श्रद्धा रखकर छह प्रकार के जीवों को अपनी आत्मा के समान मानता है, जो अहिंसा आदि पांच महाव्रतों का पूर्णरूप से पालन करता है, जो पांच आस्रवों का संवरण अर्थात निरोध करता है, वही भिक्षु है। जो सम्यग्दर्शी है, जो कर्तव्य-विमूढ़ नहीं है, जो ज्ञान, तप और संयम का दृढ़ श्रद्धालु है, जो मन, वचन और शरीर को पाप-पथ पर जाने से रोक रखता है, जो तप के द्वारा पूर्व-कृत पाप-कर्मों को नष्ट कर देता है, वही भिक्षु है।
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