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________________ वर्णभेद जन्म से नहीं, चर्या से हैं के घर में पैदा हुआ है, इसलिए ब्राह्मण है । लेबल लगा देने से सुविधा हो जाती है; जैसे कि दुकानों में लोग डब्बों पर लेबल लगा देते हैं कि इसमें यह-यह चीजें हैं। आदमी डब्बा नहीं है, उस पर लेबल लगाया नहीं जा सकता कि इसमें मिर्च रखी है, इसमें नमक रखा है; ऐसा कुछ उसमें रखने का कुछ उपाय नहीं है। आदमी एक प्रवाह है। लेकिन महावीर से राजी होने के लिए सतत प्रवाह की असुविधा, संकट और संघर्ष झेलना जरूरी है। द्विज वही है, महावीर कहते हैं, जो पवित्र गुणों से युक्त है; जिसने धीरे-धीरे अपनी चेतना में परमात्मा की क्षमता को प्रगट करना शुरू किया है; जो ट्रान्सपैरन्ट हो गया है, पारदर्शी हो गया है; जिसने अपनी सारी अशुद्धि छोड़ दी; और भीतर का प्रकाश जिससे बाहर आने लगा है। 'द्विज' शब्द समझने जैसा है। द्विज का अर्थ है : दुबारा जिसका जन्म हो गया–ट्वाइस बार्न । एक जन्म तो मां के पेट से होता है। वह असली जन्म नहीं है। उससे तो सभी शूद्र दसरा जन्म है जो व्यक्ति अपनी आत्मा को स्वयं के श्रम से देता है। उस श्रम से जब आप स्वयं ही अपने माता-पिता बनते हैं और एक नयी आत्मा को जन्माते हैं, आप द्विज होते हैं। द्विज का अर्थ है, जिसने दूसरा जन्म भी इसी जन्म में पा लिया, जिसने नया जन्म पा लिया। इस नये जन्म पा लिये व्यक्ति से आशा की जा सकती है कि वह अपना और दूसरों का उद्धार कर सकेगा। लेकिन अपना उद्धार पहले है क्योंकि जिसका अपना दिया बझा हो, वह दूसरों के दीये नहीं जला सकता। जिसका अपना दीया जला हो, उससे दूसरों की ज्योति भी जल सकती है। जिनके खुद के दीये बुझे हैं वे दूसरों के दिये जलाना तो दूर, डर यह है कि किसी का जलता हुआ दिया बुझा न दें। ___ अंधे तो गड्ढों में गिरते ही हैं, उनके पीछे जो चलते हैं, वे भी गड्ढों में गिर जाते हैं। आंखवाले की तलाश गुरु की तलाश है। आंखवाले की खोज द्विज की खोज है जिसका दूसरा जन्म हो चुका है इसी जन्म में; जो शरीर ही नहीं रहा अब, बल्कि शरीर के पार कुछ और भी जिसके भीतर घटित होना शुरू हो गया है; जो अब कह सकता है कि मैं वही नहीं हूं, जो मां-बाप ने मुझे पैदा किया था मैं कुछ और भी हूं। बुद्ध लौटे बारह वर्ष बाद । सारा गांव बुद्ध को घेरकर इकट्ठा खड़ा हो गया । ऐसी रोशनी देखी नहीं गयी थी। ऐसे संगीत का अनुभव पहले किसी व्यक्ति के करीब नहीं हुआ था। लेकिन बुद्ध के पिता को कुछ नहीं दिखाई पड़ा। बुद्ध के पिता नाराज थे। वे द्वार पर खड़े थे राजमहल के । उन्होंने गौतम सिद्धार्थ से कहा, 'सिद्धार्थ, मेरे पास बाप का हृदय है, मैं तुझे अभी भी क्षमा कर सकता हूं। तू वापस आजा।' बुद्ध ने निवेदन किया कि आप शायद मुझे देख नहीं पा रहे हैं कि मैं बिलकुल बदलकर आया हूं। जो बेटा घर से गया था, वही लौटकर नहीं आया है। मैं बिलकुल नया होकर आया हूं; जो गया था उसकी रेखा भी नहीं छूटी है। यह जो आया है; बिलकुल नया है, आप जरा गौर से देखें। पिता नाराज हो गये। पिता, जैसा अकसर...नाराज हो ही जायेंगे। पिता ने कहा कि मैंने तुझे पैदा किया और मैं तुझे पहचान नहीं पा रहा हूं? मेरा खून, मांस, हड्डी तेरे भीतर है और मुझे तुझे पहचानना पड़ेगा? मैं तेरा बाप हूं; मैंने तुझे जन्माया है; मेरा खून है तू; मैं तुझे भलीभांति जानता हूं । तुझे देखने की क्या जरूरत है? बुद्ध ने कहा, 'आप ठीक कहते हैं । जो आपको दिखाई पड़ रहा है, उसके आप पिता हैं । लेकिन अब मैं कुछ और भी लेकर आया हूं, जो आपसे नहीं जन्मा है। अब मैं द्विज होकर आया हूं; नया जन्म हुआ है।' 399 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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